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________________ सम्मान किया था तथा साहित्य सृजन को प्रभूत प्रोत्साहन दिया था। आचार्य वादिराजसूरि का वह बड़ा आदर करता था। उसकी राज्यसभा में परवादियों के साथ उस आचार्य ने अनेक शास्त्रार्य किये थे, और उक्त बाद विजयों के उपलक्ष्य में सम्राट् ने उन्हें स्वमुद्रायुक्त 'जयपत्र' दिया या तथा 'जगदेकमल्लवादी' उपाधि प्रदान की थी। उन्हीं वादिराज ने इसी नरेश के प्रश्रयं में 1025 ई. में अपने सुप्रसिद्धकाव्य 'पार्श्वचरित' की रचना की थी। इस ग्रन्थ में आचार्य ने नरेश का उल्लेख 'जयसिंह', 'चालुक्यचकी', 'सिंह चक्रेश्वर' आदि रूपों में किया है। उन्होंने अपना 'यशोधरचरित' भी इसी नरेश के आश्रय में रचा था और उसमें 'रणमुखजयसिंह' रूप में उसका उल्लेख किया गया है । 'एकीभावस्तीव', 'न्यायविनिश्चयविवरण आदि अन्य ग्रन्थ भी इन आचार्य ने रचे हैं। श्रवणबेलगोल के मल्लिषेण- प्रशस्ति नामक प्रसिद्ध शिलालेख के अनुसार यह वादिराज द्रपिलसंघी मतिसागर गुरु के बालब्रह्मचारी शिष्य थे, चालुक्य चक्रेश्वर जयसिंह द्वारा, पूजित थे और उसी के जयकटक में इन्होंने 1077 ३. के समस्त वादियों का गर्व खर्व किया था । हुमच्च की पचवसति के जो शिलालेख में उन्हें 'सर्वज्ञकल्प' कहा है। 'षट्तर्कषण्मुख' और 'जगदेकमल्लवादी' उनके विरुद बताये हैं तथा सम्राट् द्वारा उन्हें जयपत्र प्रदान करने का भी उल्लेख है। आधुनिक विद्वानों ने बहुधा इन्हें कनकसेन (हेमसेन) वादिराज से अभिन्न मान लिया है, किन्तु यह भूल है उक्त विद्याधनंजय हेमसेन वादिराज तो इन वादिराज के गुरु मतिसागर के भी ज्येष्ठ गुरुभ्राता थे। रूपसिद्धि' के कर्ता दयापात भी उक्त पतिसागर के सर्मा थे और इसी नरेश के आश्रय में थे अनेक ग्रन्थों के रचयिता महापण्डित प्रभाचन्द्र भी इसी काल में हुए हैं। वह मूलतया धारा में भोजदेव के आश्रय में रहे, किन्तु चालुक्य जयसिंह से भी सम्मानित हुए थे। इन प्रभाचन्द्र के एक सधर्मा मलधारि गुणचन्द्र थे जो बलिपुर के मल्लिकामोद- शान्तीश के चरणपूजक थे। मल्लिकामोद- शान्तीश-वसदि नाम का यह सुन्दर जिनालय स्वयं महाराज जयसिंह ने, जिनका विशिष्ट 'मल्लिकामोद' था, बनवाया था। एक अन्य जैन गुरु वासवचन्द्र ने भी अपने वाद पराक्रम के लिए चालुक्य कटक में 'बाल-सरस्वती' की उपाधि प्राप्त की थी। मुल्लूर की ज्ञान्तीश्वर वसति के निकट प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार 1050 ई. में गुणसेन पण्डित के गुरु पुष्पसेन सिद्धान्तदेव के समाधिमरण की स्मृति में उनके चरणविद स्थापित किये गये थे। I सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्यमस्त आहवमल्ल ( 1042-68 ई.)- जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था जो बड़ा पराक्रमी, और योद्धा, साथ ही श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ भी था । आहचमल्ल उपाधि धारण करनेवाला इस वंश का यह दूसरा राजा था, और त्रैलोक्यमल्ल' इसकी अपनी विशिष्ट उपाधि थी। चोलों, परमारों आदि के साथ उसके बुद्ध बराबर चलते रहे। अपने साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि में उसने वृद्धि ही की। वह एक निष्ठावान् जैन सम्राट् था । बेल्लारी जिला का कोगली नामक स्थान 136 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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