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उस पार व्याकुल हताश खड़े सैनिकों पर गर्थी और लौट आयी। परम जिनेन्द्रभक्त महासती ने त्रियोग एकान कर इष्टदेव का स्मरण किया और उसकी धीर-गम्भीर वाणी सबने सुनी-"यदि मेरी जिनमक्ति अविचल है, यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म अखण्ड हैं, और यदि मेरी सत्यनिष्ठा अकम्पनीय है, तो हे पहानदी गोदावरी! मैं तुझे आज्ञा देती हूँ कि तेस प्रवाह उतने समय के लिए सर्वथा स्थिर हो जाए जब तक कि हमारे स्वजन उस पार से इस पार सुरक्षित नहीं चले आते!" उभयतटवती सहस्रों नेत्रों ने देखा वह अद्भुत, अभूतपूर्व चमत्कार! साथ ही, पलक मारते ही महानदी गोदावरी ने सौम्य रूप धारण कर लिया, जल एकदम घटकर तल से जा लमा, नदी का प्रवाह स्थिर हो गया। हर्ष, उल्लास और जयध्वनि से दिम्-दिगन्त व्याप्त हो गया।
कुछ ही देर पश्चात्, शिविर के एक कक्ष में सौन्सक घात से आहत वीर नागदेव अपनी प्रिया की गोद में सिर रखे, प्रसन्न हृदय से अन्तिम श्वासे ले रहा था। कक्ष के बाहर स्वजन-परिमन समस्त पुनः आशा-निराशा के बीच झूल रहे थे। गोदावरी फिर से अपने प्रचण्ड' रूप में आ चुकी थी और उस पार खड़ी शत्रु की सेना हाथ मल रही थी। वीर नागदेव ने वीरगति प्राप्त की। पतिवियुक्ता सती ने अपूर्व धैर्य के साथ स्वयं को सँभाला और एक आदर्श, उदासीन, धर्मात्मा श्रायिका के रूप में घर में रहकर ही शेष जीवन व्यतीत किया। स्वर्ण एवं मणि-माणिक्यादि महर्य कमी की 500 जि प्रालिमा बसवावर विचारों में प्रतिष्ठापित की थीं, अनेक जिनालयों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार कराया था, और
आहार-अभय-औषध-विद्या रूप चार प्रकार का दान अनवरत देती रहने के कारण वह 'दान-चिन्तामणि' कहलायी थी। उभयभाषाचक्रवर्ती महाकवि पोन्न के शान्तिपुराण (कन्नडी) की स्वद्रव्य से एक सहल प्रतियों लिखाकर उसने विभिन्न शास्त्रमण्डारों आदि में वितरित की थीं। स्वयं सम्राट् एतं युवराज की इस देवी के धर्मकार्यों में अनुमति, सहायता एवं प्रसन्नता थी। सर्वत्र उसका अप्रतिम सम्मान और प्रतिष्ठा थी। उक्त घटना के लगभग एक सी वर्ष पश्चात् भी (1116 ई. के शिलालेखानुसार) होयसलनरेश के महापराक्रमी सेनापत्ति गंगराज ने महासती अतिमब्बे द्वारा गोदावरी प्रवाह को स्थिर कर देने की साक्षी देकर ही उम्पड़ती हुई कावेरी नदी को शान्त किया था। शिलालेख में कहा गया है कि विश्व महान् जिनभक्त अत्तिमथ्वरसि की प्रशंसा इसीलिए करता है कि उसके आज्ञा देते ही उसके तेजोप्रभाव से गोदावरी का प्रवाह तक रुक गया था। आनेवाली शताब्दियों में वाचलदेयी, बम्मलदेवी, लोक्कलदेवी आदि अनेक परम जिनभक्त महिलाओं की तुलना इस आदर्श नारी-रत्न तिम के साथ की जाती थी। किसी सतवन्ती, दानशीला या धर्मात्मा महिला की सबसे बड़ी प्रशंसा यह मानी जाती थी कि 'यह तो दूसरी अन्तिमब्बे है' अथवा 'अभिनव अत्तिमब्बे' है। डॉ. भास्कर आनन्द मानतोर के शब्दों में "जैन इतिहास के महिला जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशंसित नाम अन्तिमच्छे है।" कहा जाता है कि एक
134 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं