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________________ विकराल रूप धारण कर लिया। चालुक्य शिविर में भारी बिन्ता और बेचनी व्याप गयी । महाराज, महामन्त्री, सेनापति आदि तथा राजपरिवार की अनेक महिलाएँ भी शिविर में थीं जिनमें अत्तिमध्ये भी थीं। उनकी तथा अन्य सबकी चिन्ता स्वाभाविक थी। नदी के उस पार गये लोगों में से कौन और कितने वापस आते हैं, और कहीं परमारों ने पुनः बल पकड़कर उन्हें धर दबाया और नदी तट तक खदेड़ लाये तो उन सबके प्राण जाएँगे। इधर से नदी की बाढ़ के कारण न उन्हें सहायता पहुँचायी जा सकती है और न वे स्वयं ऐसे तूफ़ानी नद को पार कर सकते हैं। वियम परिस्थिति थी। सबकी दृष्टि नदी के उस पार लगी थी। प्रतीक्षा के क्षण लम्बे होते जा रहे थे। उनकी समाप्ति का कोई लक्षण नहीं था, कि अकस्मात् देखा गया कि जिस बात की आशंका थी प्रायः वही घटित होनेवाली थी । संकेतविद्या में सुदक्ष कर्मचारियों ने उस पार का समाचार ज्ञात करके बताया कि जितने लोग मूलतः उस पार गये थे, उनमें से आधे से भी कम वापस आ पाये हैं, शेष खेत रहे । जो आये हैं, वे सफल होकर ही लौटे हैं- परमारों को दूर तक उनकी सीमा में खदेड़कर ही लौटे हैं, सो भी विशेषकर इसलिए में का नेतृत्व कर रहे थे, गम्भीर रूप से आहत हो गये थे। यह भी मालूम हुआ कि यह अभी जीवित तो हैं किन्तु दशा विन्ताजनक है, इस समय मूर्च्छित हैं, और यह समाचार भी अभी मिला है कि शत्रुओं को भी चालुक्यों की इस विकट परिस्थिति का भान हो गया है, और वह पुनः इनकी टोह में वापस आ रहे हैं। इन समाचारों से. चालुक्य शिविर में जो उद्विग्नता एवं चिन्ता व्याप गयी वह सहज अनुमान की जा सकती है । विविध सैनिक विषयों के विशेषज्ञों तथा अनुभवी वृद्धजनों द्वारा नाना उपाय सीधे जाने लगे, नानाविध प्रयत्न भी उस पारवालों को इस पार लाने या उन्हें आवश्यक सहायता पहुँचाने के लिए किये जाने लगे। किन्तु क्षुब्ध प्रकृति की भयंकर विरोधी शक्तियों के विरुद्ध कोई उपाय कारगर नहीं हो रहा था। विवशता मुँह बाये खड़ी थी। समय था नहीं, जो होना था, तत्काल होना था। इतने में महाराज ने और पार्षदों ने देखा कि एक तेजस्विनी मूर्ति शिविर के अन्तःपुर-कक्ष से निकल धीर गति के साथ उन्हीं की ओर चली आ रही है। सब स्तब्ध थे-उसने महाराज को, अपने श्वसुर को और पिता को प्रणाम किया, और उसी धीर गति के साथ वीरबाला अत्तिमब्बरसि शिविर के महाद्वार से बाहर निकलकर एक उच्च स्थान पर जा खड़ी हुई। लोगों में हलचल हुई, किन्हीं ने कुछ कहना चाहा, किन्तु बोल न निकला। उसके तेजोप्रभाव से अभिभूत महाराज के साथ समस्त दरबारी जन भी उसके पीछे-पीछे बाहर निकल आये जो मार्ग में या सामने पड़े आदरपूर्वक इधर-उधर हटते चले गये। महासती एकाकी, निश्चल खड़ी थी। उसके सुदीप्त मुखमण्डल एवं सम्पूर्ण देह से एक अलौकिक तेज फूट रहा था। एक दृष्टि उसने महाविकराल उड़ते महानद पर डाली, जिस पर से फिसलती हुई यह दृष्टि राष्ट्रकूट बोल- उत्तरवर्ती चालुक्य - कलचुरि :: 133
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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