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एवं उदारतापूर्ण बरताव बनाये रखा, जैसा कि पूर्ववर्ती गंगों, कदम्बों, चालुक्यों और सष्ट्रकूटों ने बनाये रखा था। बेल्लारी जिले के हडगल्लि तालुके के कोगुलि नामक स्थान में स्थित चेन्नपाच-यसदि का सन् 992 ई. का शिलालेख तो सूचित करता है कि यह नरेश जैनधर्म का अनुयायी था। इस लेख में सैलप द्वारा चोल राजा की पराजय का भी उल्लेख है। कन्नड भाषा का जैन महाकवि रन्न (रत्नाकर) अब उसका राजकवि था- रन के प्रारम्भिक आश्रयदाता चामुण्डराय दिवंगत हो चुके थे। सन का
अपस्वामरशिलक-महाकाव्य की समाप्ति पर तैलपदेव ने उसे 'कवि चक्रवर्ती उपाधि से विभूषित किया था और स्वर्णदण्ड, चैवर, छत्र, गज आदि प्रदान करके उसे पुरस्कृत किया था। साहस-भीमार्जुन, रत्नकरण्ड आदि काव्य भी उक्त कविरत्न ने सम्भवतया इसी नरेश के प्रश्रय में रचे थे। इसी वर्ष 998 ई. के सोमसमुद्र शिलालेख से पता चलता है कि लोकहित के लिए इस सम्राट ने एक विशाल ताल का निर्माण कराया था और उसके लिए 'बित्तुवष्ट' भूमि लगायी थी। राजाज्ञा का उल्लंघन करनेवालों को उसने यदि (जिनमन्दिर) काशी, अन्य देवालय आदि को हानि पहुँचानेवाला जैसा पातकी एवं दण्डनीय घोषित किया था। इस सत्ती में जिनालय का सर्वप्रथम उल्लेख ही जैनधर्म के प्रति इस नरेश की आस्था प्रकट करता है।
महासती अत्तिमब्बे कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यों के वंश एवं साम्राज्य की स्थापना में जिन धर्मात्माओं के पुण्य, आशीर्वाद और सदभावनाओं का योग रहा उनमें सर्वोपरि महासती अन्तिमब्वे थीं, जिनके शील, आचरण, धार्मिकता, धर्मप्रभावना, . साहित्यसेवा, बैदुष्य, पातिव्रत्य, दानशीलता आदि सद्गुणों के उत्कृष्ट आदर्श से तैलपदेय आहवमल्ल का शासनकाल धन्य हुआ। इस सम्राट् के प्रधान सेनापति । मल्लप की यह सुपुत्री थीं। वाजीवंशीय प्रधानामात्य मन्त्रीश्वर धल्ल की वह पुत्रवधू : थीं। प्रचण्ड महादण्डमायक और वीर नामदेव की बह प्रिय पली थीं और कुशल : प्रशासनाधिकारी धीर पटुयेल तैल की स्वनामधन्या जननी थी। युवराज सत्याश्रय उनके पति का अनन्य मित्र था और उनको बड़ी मौजाई मानकर अत्यन्त आदर करता था। स्वयं सपाट तेलर उन्हें अपने परिवार को ही सम्मान्य सदस्या मानता था। एक बार मालवा का सुप्रसिद्ध परमारनरेश वाक्पतिराज मुंज एक भारी सेना के साथ धावा मारता हुआ तैलपदेव के राज्य में भीतर तक घुस आया तो चालुक्य सेना ने तत्परता के साथ उसका गत्यवरोध किया और फिर उसे खदेड़ते हुए उसके राज्य मालया की सीमा के भीतर तक उसका पीछा किया। स्वयं सम्राट सैलपदेव तो गोदावरी नद के दक्षिणी तट पर शिविर स्थापित करके वहीं रुक गया, किन्तु उसकी सेना की एक बड़ी टुकड़ी महादण्डनायक नागदेव और युवराज सत्याश्य के नेतृत्व में नदी पार करके परमार सेना का पीछा करती हुई दूर तक चली गयी। इस बीच भारी तूफान आया और गोदावरी में भयंकर बाढ़ आ गयी। उफनते हुए महानद ने
E32 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं