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जिबोटों शुरभी सहायक गिमारा और सनापत्ति चामुण्डराय अन्यत्र बुद्धों में उलझे हुए थे तो मालवा के सियक हर्ष परमार ने राजधानी मान्यखेट पर धावा करके उसे जी-भर लूटा और विध्वस्त किया । खोष्टिग नित्यवर्ष भी सम्भवतया इसी युद्ध में मारा गया। सूचना पाते ही मारसिंह दौड़ा आया, किन्तु उससे पहले ही परमार सेना जा चुकी थी। खोट्टिम का पुत्र कर्क द्वितीय {972-73 ई.) राजा हुआ, किन्तु चालुक्य तैलप ने उसे युद्ध में मारकर राष्ट्रकूट राजधानी पर अधिकार कर लिया।
इन्द्र चतुर्थ-राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम नरेश था। यह कृष्ण तृतीय का पात्र तथा गंगमारसिंह का भानजा था। वह भारी वोर और योद्धा था तथा चौगान (पोलो) के खेल में निपुण था। मारसिंह ने उसे अपने पूर्वजों का राज्य प्राप्त करने में भरसक सहायता दी और एक बार तो मान्यखेड में उसका राज्याभिषेक भी कर दिया। किन्तु अब राष्ट्रकूटों का सूर्य अस्तप्राय था। स्वयं मारसिंह में 774 ई. में समाधिमरण कर लिया था। अतएव निस्सहाय इन्द्रराज कुछ वर्षों तक प्रयत्न करने के बाद संसार से विरक्त हो गया और छवणबेलगोल चला गया। हेमावती तथा श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि की गन्धवारण बसदि के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यह राजा बड़ा बीर था। इसने अनेक युद्धों में कीर्ति अर्जित की थी और अन्त मैं शक 14 (सन् 982 ई.) की चैत्रशुक्ला अष्टमी मोमवार के दिन चित्रभानु नक्षत्र में, निराकुल चित्त से ब्रतों का पालन करते हुए इस जन-पूजित इन्द्रराज ने अमरेन्द्र की महाविभूति को प्राप्त किया था अर्थात् समाधिमरणपूर्वक वह स्वर्गस्थ हुआ था। उसी के साथ महाप्रतापी राष्ट्रकूटों की सत्ता और प्रायः वंश भी समाप्त हुए।
लगभग ढाई सौ वर्ष के राष्ट्रकूट युग में जैनधर्म, विशेषकर उसका दिगम्बर सम्प्रदाय, सम्पूर्ण दक्षिणापथ में सर्वप्रधान धर्म था। डॉ. आल्लेकर के मतानुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य की लगभग दो-तिहाई जनता तथा राष्ट्रकूट नरेशों एवं उनके परिवार के विभिन्न स्त्री-पुरुषों में से अनेक तथा उनके अधीनस्थ राजाओं, उपराजाओं, सामन्त-सरदारों, उन्धपदाधिकारियों, राज्यकर्मचारियों, महाजनों और श्रेष्ठियों में से अधिकतर लोग इसी धर्म के अनुयायी थे। लोकशिक्षा भी जैन गुरुओं एवं बसदियों द्वारा संचालित होती थी। अपने इस महत प्रभाव के फलस्वरूप जैनधर्म ने जनजीवन की प्रशंसनीय नैतिक उन्नति की, राजनीति को प्राणवान बनाया और भारतीय संस्कृति की सर्वतोमुखी अभिवृद्धि को । उनका सुस्पष्ट मत है कि इस बुम के अमोघवर्ष प्रभृति जैननरेशों और उनके चंकेय, श्रीविजय, नरसिंह, चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड जैन सेनापत्तियों ने पूरे दक्षिण भारत पर ही नहीं, पूर्वी, पश्चिमी एवं मध्य 'भारत तथा उत्तरापथ के मध्यदेश पर्यन्त अपनी विजय वैजयन्ती फहरायी और बड़े-बड़े रणक्षेत्रों में यमराज को खुलकर भयंकर भोज दिये । उनका जैनधर्म इन कार्यों में तनिक भी बाधक नहीं हुआ। अतएव यह कहना या मानना कि जैमधर्म ने लोगों
12 :: प्रमुख ऐतिशासक जैन पुरुष और महिलाएँ