________________
स्वयं सम्रार के गृहमन्त्री थे, और अपने पिता को ही भाँति महानि के भक्त और प्रश्रयदाता थे। अपने नागकुमारचरित की रचना कवि ने मन्त्रीश्वर मन्त्र के मन्दिर (महल) में रहते हुए, उन्हीं के लिए एवं उन्हीं के नामांकित की थी। मन्त्रीराज मन्त्र की प्रशंसा में कवि ने लिखा है कि यह प्रकृति के सौम्य थे, उनकी कीर्ति सारे लोक में व्याप्त थी। उन्होंने अनेक जिनमन्दिर बनवाये थे। जिनचरणों के वह भ्रमर थे और जिनेन्द्र की पूजा में निरस्त रहरिशासन के रक्षक नियों को दान देने में सहा तत्पर थे, बाहरी एवं भीतरी उभय शत्रुओं का दमन करनेवाले थे, दयावान थे, दीनों के लिए शरण थे, राज्यलक्ष्मी के क्रीड़ा-सरोबर, सरस्वती के निलय, विद्वानों के साथ विधा-विनोद में निरत, शुद्ध हृदय थे। कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों के समय में भी नन्न राज्यमन्त्री बने रहे, प्रतीत होते हैं। सन 972 ई. को मान्यखेट की लूट एवं विध्यस का महाकवि पुष्पदन्त ने आँखों देखा बड़ा करुण वर्णन किया है। किन्तु उस लूट आदि से मन्त्रीराज नन्न की समृद्धि में विशेष अन्तर नहीं पड़ा प्रतीत होता है। पुष्पदन्त स्वयं ब्राह्मण थे तथा शैव माता-पिता की सन्तान थे, किन्तु एक दिगम्बर जैन गुरु के उपदेश से जैन हो गये थे, और अन्त में उन्होंने संन्यासपूर्वक मरण किया था।
खोटिग नित्यवर्ष (967-972 ई.)...कृष्ण तृतीय की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठा। इस नरेश ने अर्हत् शान्तिनाथ के नित्य अभिषेक के लिए पाषाण की एक सुन्दर चौकी बनवाकर सपर्पित की थी, ऐसा दानवलपाई के जिनमन्दिर के शिलालेख से ज्ञात होता है। इसी मरेश के सामन्त पड्डिग में, जो बातापि के चालुक्यनरेश विक्रमादित्य का वंशज था और इस समय कदम्बलिमे प्रान्त का शासक एवं सामन्त था, अपनी भार्या अक्किसुन्दरी द्वारा काकम्बल में निर्मापित भव्य जिनालय के लिए कालगणाचार्य अष्टोपवासी भट्टार के शिष्य रामचन्द्र मार को दो ग्राम प्रदान किये थे। यह दान 98 ई. में दिया गया था। इसी नरेश के समय में 971 ई. के सुप्रसिद्ध राज-तपस्थिमी आर्यिकापा-बच्चे ने, जो गंगनरेश कुतुग द्वितीय की बड़ी बहन थीं, समाधिमरण किया था। कडूर में दुर्गद्वार के निकट एक स्तम्प पर उक्त पुनीत स्मृति में अंकित शिलालेख में लिखा है कि उस राजनन्दिनी एवं राजरानी ने निर्भयता के साथ स्वहस्त से केशलोंच करके आर्यिका को दीक्षा ली थी और तदनन्तर तप-नियम में निरत रहते तीस वर्ष सक आदर्श तपस्विनी का जीवन विताया था-यह देवी यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यानमौनानुष्ठान-परायण थी। लेख उसके तीन पुत्रों ने अकित कराया था। समाधिमरण के पूर्व जब उन्होंने मातुश्री से पूछा कि हमारे लिए क्या आज्ञा है तो उस निरीह तपस्विनी ने कहा कि "जो कुछ कभी मुझे प्राप्त हुआ या मैंने ग्रहण किया, उस समस्त अन्तरंग बहिरंग परिग्रह का मैंने पूर्णतया परित्याग कर दिया है, जैसे कि वह कुछ मुझे कभी प्राप्त हुआ ही नहीं था।
राष्ट्रकूट चोल उत्सरवर्ती चालुक्य-कलचुरि :: 127