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है और नागकुमारचरित में मान्यखेट को 'श्रीकृष्णराज के खग के कारण दुर्गम' कहा
महामात्य भरत और मन्त्री नम्र-राष्ट्रकूर कृषा तृतीय के महामन्त्री भरत जैन धर्मावलम्बी कौण्डिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पितामह का नाम्म अणय्या, पिता का एवण और माता का श्रीदेवी था। इनकी पत्नी का नाम कुन्दव्या और सुपुत्र का नाम नन्न था। ब्राह्मणजातीय होने के कारण वह भरतमह भी कहलाते थे। यह महामात्यों के ही वंश में उत्पन्न हुए थे, किन्तु किसी कारण से उनके कतिपय निकट पूर्वज पदच्युत रहे थे। भरत ने अपनी योग्यता, स्वामिभक्ति एवं तेजस्विता के बल पर वह पद पुनः प्राप्त कर लिया था। अपभ्रंश भाषा के महापुराण, नागकुमारचरित आदि ग्रन्थों के रयिता महाकवि पुष्पदन्त के यह प्रश्नयदाता थे, अतएव कवि ने स्थान-स्थान पर इनका गुणानुवाद किया है। कवि के शब्दों में महामात्य भरत अनवरत रचित-जिननाथ-भक्ति और जिनवर-समय-प्रासाद-स्तम्भ थे, समस्त कलाओं एवं विद्याओं में कुशल थे, प्राकृत कवियों की रचनाओं पर मुग्ध (प्राकृत-कविकाव्य-रसायलुब्ध) थे। उन्होंने सरस्वती-सुरभि का दुग्धधान किया था, लक्ष्मी के चहेते थे, सत्यप्रतिज्ञ और निर्मात्सर थे। सम्राट के युद्धों का भार ढोते-ढोते उनके कन्धे घिस गये थे। वह अस्थत मनोहर, कवियों के लिए कामधेन, दीन-दुखियों की आशा पूरी करनेवाले, सर्वत्र प्रसिद्ध, परस्त्रीपराङ्मुख, सच्चरित्र, उन्नतमति और सुजनों के उद्धारक थे। उनका रंम साँवला था, हाथी की सै-जैसी भुजाएँ थीं, अंग सुडौल थे, नेत्र सुन्दर थे और वह सदा प्रसन्न मुख रहते थे। वह ऐसे उदार और दानी थे कि 'अलि, जीमूतवाहन, दधीचि आदि के स्वर्गगत हो जाने से त्याग गुण अगत्या भरत मन्त्री में ही आकर निवास करने लगा था। उनके गुणों की गिनती नहीं थी और न उनके शत्रुओं की। भव्यात्मा भरत ने वापी, कूप, तडाख, जिनालय आदि बनयाना स्थगित करके कवि से महापुराण की रचना करायी जो संसार-सागर से पार होने के लिए मौका के समान है। कवि पुष्पदन्त जो स्वयं 'अभिमान-मेरु' कहलाता था, बड़ा मानी और कड़वे मिजाज्ञ का था, किसी की भी प्रशंसा या चापलूसी करना उसके लिए अत्यन्त दुष्कर था। वह कहता है कि "ऐसे (भरत जैसे) व्यक्ति की वन्दना करने को भला किसका मन न चाहेगा?" महाकवि पुष्पदन्त की मित्रता के कारण महामन्त्री परत का गृह विद्या-विनोद का स्थल बन गया था, वहाँ पाठक और वाचक निरन्तर पढ़ते, गुणी गायक गान करते और लेखक सुन्दर काव्य लिखते थे। वह भरत वल्लभराज कृष्ण तृतीय के महामात्य, दानमन्त्री और कटकाधिप (सेनापति) भी थे। शक 881 (सन् 950 ई.) में, जब सम्राट मेलपार्टी में अपना विजयस्कन्धावार (छावनी) डाले पड़ा था, महाकवि ने मन्त्रीराज भरत से मेलपाटी के उद्यान में भेंट की थी। तब से वाह उन्हीं के आश्रय में रहे और उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने अपना महापुराण रकर 905 ई. में पूर्ण किया था। महामात्य भरत के सुयोग्य सुपुत्र नत्र
126 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं