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________________ द्वास निर्मापित थी। उसने उस बसति के लिए चार मत्तल धान्य का क्षेत्र भी दान दिया था। चिक्कहनसोगे के रामेश्वर मन्दिर में प्राप्त एक शिलालेख में उल्लिखित जक्कियो भी यही प्रतीत होती है। उक्त लेख में उसे नागकुमार नामक एक महान् बोद्धा की भार्या बताया है और लिखा है कि इस भक्त श्राविका ने, जो अपने गुणों के कारण रोहिणी से भी बढ़ गयी थी, शरीर की अशुचिता, मश्वरता एवं हेयता का भान करके, प्रसन्नता के साथ समाधिमरणपूर्वक परलोक यात्रा की थी। राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय अकालवर्ष (995-967 ई.)-इन्द्र तृतीय के उपरान्त क्रमशः तीन राजे और हुए और तदनन्तर अमोघवर्ष तृतीय बद्दिग का पुत्र एवं उत्तराधिकारी यह कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूटों के सिंहासन पर बैठा। वह इस बंश के अन्तिम नरेशों में सर्वमहान् था। गंगनरेशों के साथ कई विवाह सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें उसने अपना परम हितु और सहायक बना लिया था। गंगनरेश भूतुग द्वितीय, मालदेव, मारसिंह आदि ने तथा उनके सुप्रसिद्ध सेनापति वीर चामुण्डराय ने कृष्ण के लिए अनेक युद्ध सफलतापूर्वक लड़े और उसकी विजयपताका चहुंओर फहरायी। कृष्ण के करहाइ ताम्रपत्र (959 ई.) उस समय लिखे गये थे जब सम्राट् अपने मेलपाटि (मेलाडि) के सैन्यशिविर में ठहरा हुआ जीले हुए प्रदेश, धन, रत्न आदि अपने सामन्तों और अनुगतों में उदारतापूर्वक बाँट रहा था। वह स्वयं भी एक वीर योद्धा, दक्ष सेनानी, मित्रों के प्रति उदार, विद्वानों का आदर करनेवाला, धर्मात्मा प्रतीची नरेउसने राय औरणारी प्रतिष्ठा को गिरते-गिरते बचाया। अपने अधिकांश पूर्वजों की भांति वह जैनधर्म का पोषक था। जैनाचार्य वादिग्गल भट्ट का बड़ा सम्मान करता था। यह विविध विषय विशेषज्ञ, अद्भुत प्रतिमासम्पन्न आचार्य गंग मारसिंह के गुरु थे। उनका राजनीतिविषयक ज्ञान ऐसा अगाध और सटीक था कि वल्लभराज (कृष्ण तृतीय) की राजधानी और राजसमा के समस्त विद्वानों ने उनकी महत्ता स्वीकार करके उन्हें सम्मानित किया था। स्वयं सम्राट् कृष्णराज उनसे अत्यधिक प्रभावित था और उन्हीं की मन्त्रणा एवं समझे के फलस्वरूप वह अपने युद्धों में तथा विभिन्न प्रदेशों की विजय करने में सफल हुआ था। सम्राट के समस्त मण्डलीक और सामन्त भी इसी कारण इन आचार्य का अत्यधिक आदर करते थे। कृष्ण तृतीय 'शान्तिपुराण' और जिनाक्षर माले' के रथपिता कन्नड़ के जैन महाकवि पोन्म (पत्रिमव्य) को "उमयम्मापाचक्रवर्ती की उपाधि देकर सम्मानित किया था एवं प्रश्रय दिया था। जैनाचार्य इन्द्रनन्दि ने 'ज्वालमालिनीकल्प' मान्यखेट में 939 ई. में रचा था। आचार्य सोमदेव ने अपने नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचयू (959 ई.) आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना भी इसी सम्राट् के एक चालुक्य सामन्त के प्रश्रय में गंभधार नगर में की थी। सम्राट के प्रधान मन्त्री भरत और उनके गुत्र नन्न अपग्रंश भाषा के जैन महाकवि पुष्पदन्त के प्रश्रयदाता थे। पुष्पदन्त ने कृष्णराज का उल्लेख 'तुङिगु महानुभाव' नाम से किया राष्ट्रकूट-चोल-उसरबती चालुक्य-कलधुरि : 125
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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