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होनेवाले खण्डस्फुटित (मरम्मत), सम्मार्जनोपलेपन (लिपाई-पुताई), परिपालन आदि धर्मोपयोगी कायों के लिए आश्विन पूर्णिमा के दिन, जिस दिन सर्वग्रासीसोमग्रहण हुआ था, सम्राट ने प्रदान कर दी। ताम्रशासन का लेखक ग्राम पट्टलाधिकारी रणहस्ति नागवर्म-प्रध्वीराम का भृत्य, वलभीकायस्थों के वंश में उत्पन्न श्रीहर्ष का पुत्र भोगिक बत्सराज था जो धर्माधिकरण पद पर आसीन था। बकेयराज का मुख्य महत्तर (दीवान) गणपत्ति था जिसने इस दान को व्यवस्था की थी। कालान्तर में मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य धीरनन्दि मुनि ने, जिनके पास यह ताम्रशासन था, कोलनूर के महाप्रभु हुलिमरस तथा अन्य सम्जनों की प्रार्थना पर कोम्सूर का प्रस्तुत शिलालेख अंकित कराया था जिसमें उक्त ताम्रशासन की प्रतिलिपि समाविष्ट है। उक्त ताम्रशासन में राष्ट्रकूटों को वंशावली, सम्राट अमोघवर्ष की प्रशस्ति तथा वीर बंकेयरस के वंश-परिचय, विजयों और पराक्रम का वर्णन भी है। बंकेय का पुत्र लोकादित्य भी अपने पिता की ही भाँति जिनधर्म का भक्त था। बकेय के निधन के उपरान्त वही वनवासी. शान्त का जागीरदार और शासक तथा संकापुर का स्वामी था। उसके समय में, 898 ई. में, आचार्य गुणभद्र के शिव्य लोकसेन ने गुरु द्वारा पूर्ण किये 'महापुराण का विमोचन, पूजनोत्सव एवं सार्वजनिक वाचन लोकादित्य के प्रश्रय में ही समारोहपूर्वक किया था। गुणभद्राचार्य का स्वर्गवास उसके पूर्व ही हो चुका था।
कृष्ण द्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष (978-914 ई.)-सज्य का वस्तुतः स्वामी तो 876 ई. के लगभग ही हो गया था, जब उसके पिता सम्रार ने राज्यकार्य से अवकाश ले लिया था। उसका विधिवत राज्याभिषेक भी 878 ई. में हो गया। इसका शासन भी युद्धों, विजयों, कभी-कभी पराजयों से भी पूर्ण रहा । उसकी पट्टरानी चेदिनरेश कोक्कल प्रथम की पुत्री थी। यह सम्राटू और इसकी पट्टरानी दोनों जैनधर्म में आस्था रखते थे। आचार्य गुणभद्र तो घुवराजकाल में ही उसके विद्यागुरु थे। उसके सम्राट् होने के पश्चात् भी सम्भव है वह कुछ वर्ष जीवित रहे और सम्राट् उनके प्रति विनयावनत रहा। उनके उपरान्त उनके घट्टशिष्य लोकसेन भी उसके बारा सम्मानित रहे। उसी के शासनकाल में उन्होंने गुरू के 'उत्तरपुराण' की प्रशस्ति को संवद्धित करके बंकापुर में लोकादित्य की राजसभा में उक्त 'महागुराम का पूजोत्सव किया था। कृष्ण द्वितीय के अनेक सामन्त-सरदार जैनधर्म के अनुयायी थे और साथ हो बड़े पराक्रमी वीर एवं योद्धा थे। इनमें से नरसिंह चालुक्य ने उत्तरापथ में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार नरेश महीपाल को पराजित करके गंगा नदी में अपने घोड़े नहलाये थे। सेनाध्यक्ष श्रीविजय भी जैन था 1. वनवासी का शासक लोकादित्य तो जैनः था ही। सौन्दत्ति के रहसन पृथ्वीराम ने भी अपने प्रदेश के जैनमन्दिरों के लिए भूमि आदि के दान दिये थे। एक परम जैन सामन्त तोलपुरुष विक्रम सासर ने अपनी राजधानी हुमच्च में पालियाक्क बसधि एवं गुडड-बसदि नामक जिनालय बनवाये थे
1 22 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ