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________________ वीरबकेयरस-सम्राट अमोघवर्ष प्रथुम के राजपस्यों में जैनधर्म की दृष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय उसको महासनापति वीर कयरस है। वह मुकुल नामक व्यक्ति के उस कुल में उत्पन्न हुआ था जो "विक्रम-बिलास-निलय' कहलाता था, अर्थात् अपनी वीरता और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध था। मुकुल सम्भवतया राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम की सेवा में था, उसका पुत्र रिकोटि धुक्धारावार्ष की और एरिकोटि का पुत्र धोर, जो अपने वंश का 'कुलाधार' था, गोविन्द तृतीय की सेवा में था। वह कोलनुर का शासक था-सम्भवतया राय की ओर से कोलनूर उसे जागीर में भी मिल गया था। धौर की पत्नी विजयांका से इस लोकमान्य, प्रचण्ड मण्डलीकों में आतंक फैलानेवाले 'चल्लकेतन' चीर बंगकेश का जन्म हुआ था। उसका ध्वजयिष्ल 'ना' था, इसलिए बार 'चेल्लेकेतन' भी कहलाता था। यह अपने स्वामी वीरनारायण अमोधवर्ष वल्लभनरेन्द्र का 'इष्टप्रत्य--अत्यन्त कृपापात्र एवं प्रिय अनुचर था। सम्राट् ने उसे विशाल उनवासि-50,000 देश का एकाधिपति सामन्त बना दिया था। वहाँ बकेय ने बंकापुर नाम का एक सुन्दर नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया । सम्भयतया यह नगर उसकी धागत जागीर कोलनूर के निकट ही स्थित था। जब गंग संचमल्ल के उत्तराधिकारी एऐयगंग ने राष्ट्रकूट सम्राट् के विरुद्ध विद्रोह किया था तो सेनापत्ति बँकेय ने गंगों के दाल और सलकाड नगरों पर अधिकार करके गंगों का दमन किया। केय जद इस अभियान में व्यस्त था तो गुर्जराधिप कक के पुत्र ध्रुव ने युवराज कृषा को अपने साथ मिलाकर राजधानी मानपखेट में एक षड्यन्त्र रच डाला। सूचना पाते ही दकय राजधानी आया और तत्परता के साथ उक्त विद्रोह का दमन किया। ध्रुव युद्ध में मारा गया। इसी अवसर पर प्रसन्न होकर सम्राट् ने बकेय की वनयासी की जागीर प्रदान की थी। बेंगि का विजयादित्य-गुणम इस समय के श्रेष्ठतम शासकों में से था। वह राष्ट्रकूटों की पराधीनता से मुक्त होना चाहता था, अतएव उत्तने भी सिर उठाया, किन्तु युद्ध में पराजित हुआ। इस विजय का श्रेय भी बंकेय को था। इस प्रकार स्वामिभक्त सेनापति वीर चकय के पराक्रम से सम्राट् अमोघवर्ष के समस्त शत्रओं का तत्परता के साथ दमन होता रहा और स्वचक एवं परम्पक दोनों के ही उत्पातों से उसकी और उसके साम्राज्य की रक्षा होती रही। बकेय की अनेक महत्वपूर्ण सेवाओं से प्रसन्न होकर एक बार सम्राट ने उससे इत्रित यर माँगने का आग्रह किया तो उस धर्मात्मा वीर ने कहा कि उसे कुछ नहीं चाहिए, अपने सम्राट की सेवा ही उसके लिए भरपूर पुरस्कार है। सम्राट के पुनः आग्रह पर उसने कोलनर (कोन्नूर) में अपने द्वारा निमंपित पथ्य जिनालय के लिए दान देने की प्रार्थना की। अतएव अपने शक 782 (सन् 860 ई.) के कोन्नर ताम्रशासन द्वारा तलेयूर नाम का ग्राम तथा अन्य तीस ग्रामों की कुछ भूमियाँ उक्त मन्दिर के परिपालन के लिए नियुक्त मूलसंघदेशीयगय पुस्तकगच्छ के त्रैकालयोगीश के शिष्य देवेन्द्र मुनीश्वर सैद्धान्तिक को उक्त जिनालयं के निर्माण के उपरान्त राष्ट्रकूट-बोल-उत्तरवती यालुक्य-कलचुरि :: 121
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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