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ने अपने सुविख्यात 'शब्दानुशासन' नामक व्याकरण शास्त्र की तथा उसकी स्योपज्ञ 'अमोघवृत्ति' नाम्नी टीका की रथमा भी इसी नृपति के आश्रम में की थी। स्वयं सम्राट् अमोघवर्ष ने कन्नही भाषा में 'कविराजमार्ग नामक छन्द-अलंकार शास्त्र रचा, तथा संस्कृत में 'प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका' नाम का नीतिशास्त्र स्था, जिसके प्रारम्भ में उसने तीर्थकर महावीर की वन्दना की है और अन्त में सूचित किया है कि विवेक का उदय होने पर उस राजर्षि अमोघवर्ष ने राज्य का परित्याग कर दिया था, और सुधीजनों को विभूषित करनेवाली इस 'रत्नमालिका' को रचा था। उसके कोन्नूर आदि अभिलेखों से प्रकट हैं कि इस नरेश ने जैनमुरुओं, जैनमन्दिरों और संस्थागों को अनेक दान भी दिये थे।
इस प्रकार वह न्याय-नीलिपरायण, सद्विचारपूर्ण, विवेकयान, धर्मनिष्ठ राजर्षि बीच-बीच में बहुधा राज्यकार्य से अवकाश लेकर गुरुचरणों में, सम्मनतया घाटग्राम के मठ में जाकर, अकिंचन हो अल्पाधिक अवधि के लिए निराकुललापूर्वक धर्मसेवन किया करता था। उसके संजन ताम्रशासन से भी ऐसा ही भाव झलकता है 1 स्वाद में उसकी निष्ठा थी, तत्त्वचर्चा, विद्वानों के व्याख्यानों और शास्त्राधों में वह रस लेता था। खान-पान तो उसका जैमोचित शुद्ध था ही, संयमी जीवन बिताने का भी अभ्यस् । अपने जीवन के अन्तिम भाग में, . लगभग, राज्यकार्य का भार युवराज कृष्ण को सौंपकर उसले स्थायी अवकाश ले लिया था और एक आदर्श त्यागी श्रावक के रूप में समय व्यतीत किया था। सन 878 और 80 ई. के मध्य किसी समय इस राजर्षि का निधन हुआ। स्वयं समाट् अतिरिक्त उसकी माता महारानी गामुण्डब्बे, पट्टमहिषी उमादेवी, दराज कृष्णा, राजकुमारियों शंखादेवी और समाबेलब्रे, चचेरा भाई कर्कराज इत्यादि राजपरिवार के अधिकतर सदस्य जिनभक्त थे। सामन्त-सरदारों में लाट-गुजरात के राष्ट्रकूटों और सेनापति बकैय के अतिरिक्त नौलम्बवाड़ी के नोलम्ब, सौन्दति के रट्ट, हुम्मच के सान्तर, गंगाडि के गम, योग के पूर्वी चालुक्य आदि अनेक जैनधर्मावलम्बी थे। गुर्जराधिन ककराज ने तो 821 ई. के अपने सूरत दान-पत्र के द्वारा जैनाचार्य परवादिमाल के प्रशिष्य को नवसारी (नवसारिका) के जैन विद्यापीठ के लिए भूमि दान की थी। सन् Bry के एक शिलालेख में एक जैन बसदि के लिए राज्य द्वारा सिंहवरमण के आचार्य नागनन्दि को दान देने का उल्लेख है। सम्राटू का व्यक्तिगत विश्वास जैनधर्म में था, तथापि यह परधर्म-सहिष और समदर्शी था 1 कुलाचार के अनुसार अपनी कुलदेवी महालक्ष्मी में भी उसकी आस्था रही प्रतीत होती है, क्योंकि एक बार इस प्रजावत्सल मृति ने अपनी प्रजा को महामारी के प्रकोप से बचाने के लिए उक्त देवी के चरणों में अपनी अंगलि काटकर चढ़ा दी थी। यह उसके राज्यकाल के पूर्वार्ध की घटना रही प्रतीत होती है। वैसे इस राष्ट्रकूट चक्रवती अमोधवर्ष नपतंग के साम्राज्य में जैनधर्म ही प्रायः राष्ट्रधर्म हो रहा था।
120 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं