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________________ गोपाल भण्डारकर के मत्तानुसार राष्ट्रकूट नरेशों में अमोघवर्ष जैनधर्म का सर्वमहान संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था।" वीरसेन स्वामी के प्रिय पट्ट-शिष्य और उनके वाटनगर केन्द्र के तत्कालीन अधिष्ठाता सेमसंधी आचार्य जिनसेन स्वामी सम्राट् के धर्मगुरु एवं राजगुरु थे। वह विभिन्न भाषाविज्ञ एवं विविध-विषय-निष्णात दिगाज विज्ञान और महाकवि थे। बालपन से ही उनके साथ अमोघवर्ष का सम्पर्क रहा था, और वह उनकी बड़ी विनय करता था। इन आचार्य के सम्मुख सर्वप्रमुख कार्य स्वगुरु द्वारा अधूरे छोड़े गये कार्य को पूरा करना था, अतएव 837 ई. में उन्होंने सम्राट अमोधवर्ष के प्रश्रय में और उसके प्रधानामात्य गुर्जराधिप कर्कराज के संरक्षण में, गुरु द्वारा स्थापित बारसगर के after 6, म यदल' को पूर्ण किया और उसे श्रीपालगुरु द्वारा सम्पादित कराके सन्तोष प्राप्त किया। तदनन्तर, सम्राट के आग्रह पर: वह: राजधानी मान्यखेट में ही प्रायः रहने लगे। वहीं उन्होंने महाकवि कालिदास के सुप्रसिद्धः मेघदूत की समस्यापूर्ति के रूप में अपने पास्युदयकाव्य' की रचना की, जो अपनी काव्यगत विशेषताओं के लिए समग्र संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठतम काव्य निधियों में परिगणित है। उक्त काव्य में अमोघवर्ष का भी सांकेतिक उल्लेख हैं। इसके उपरान्त आचार्य ने महापुराण की रचना प्रारम्भ की, किन्तु आदि तीर्थंकर का चरित्र भी पूरा निबद्ध न कर पाये कि दिवंगत हो गये। जिस विशाल योजना के साथ उन्होंने यह महापुराण रचना प्रारम्भ किया था, यदि पूरा कर पाते, तो यह अद्वितीय होता। उनके पशिष्य गुणभद्राचार्य ने मुरु द्वारा अधूरे छोड़े आदिपुराण को पूरा किया तथा उसरपुराण के रूप में संक्षेप से शेष लेईस लीर्थंकरों का चरित्र निबद्ध करके महापुराण का समापन किया। मुणभद्राचार्य ने पत्तरपुराण में लिखा है कि स्वगुरु भावजिनसेनाचार्य के चरणकमलों में प्रणाम करके अमोघवर्ष नृपति स्वयं को पवित्र हुआ धन्य मानता था। आचार्य गुणभद्र ने 'आत्मानुशासन', 'जिनदत्तचरित्र' आदि ग्रन्थ भी रचे हैं। अमोधवर्ष और उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय, दोनों ही इन आचार्य का सम्मान करते थे। सम्राट् ने इन्हें युवराज कृष्ण का शिक्षक भी नियुक्त किया था, ऐसा प्रतीत होता है। आचार्य उग्रादित्य ने सम्राट् के आग्रह पर उनकी राजसभा में आकर अनेक आयुर्वेदज्ञों एवं अन्य विविध विद्वानों के समक्ष मद्य-मांस निषेध का वैज्ञानिक विवेचन किया था, और इस ऐतिहासिक व्याख्यान को 'हिताहित अध्याय' शीर्षक से अपने पूर्वलिखित (लगभग 800 ई. में प्रसिद्ध वैद्यक ग्रन्थ 'कल्यापाकारक' में परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया था। प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने अपना सुविदित गणितसार-संग्रह.उसी सम्राट के आश्रय में लिखा था उसकी प्रशस्ति में आचार्य ने लिखा है कि जिस नृपतुंगदेव के शासन में स्याट्रयादन्याय के पक्षधरों ने समस्त एकान्त पक्षों को विध्वस्त कर दिया था, उस नृपति का वह शासन वर्द्धमान हो।' यापनीय संघ के जैनाचार्य शाकदायन पाल्यकीर्ति राष्ट्रकूट-चोल-उत्तरवी चालुक्य- कलचुरे :: 119
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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