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तथा 897 ई. में कुन्दकुन्दान्वय के मौनी सिद्धान्त भट्टारक के लिए एक अन्य बसदि बनवायी थी। उसने अपनी राजधानी में सम्भवतया उसकी गुडड बसदि में, भगवान् बाहुबलि की प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की थी। विक्रमवरगुण नामक एक अन्य सामन्त ने पेरियड के अरिष्टनेमि भट्टारक के शिष्य को दान दिया था। कृष्ण के राज्यकाल में ही, 881 ई. में कोष्णतीर्थों पर गुदुभट्टारक के शिष्य जैन मुनि सर्वनन्दि का समाधिमरण हुआ था । उस काल में कोप्पण एक धर्मतीर्थ एवं उन्नत जैन केन्द्र था । स्वयं कृष्ण द्वितीय से मूलगुण्ड, बदनिके आदि स्थानों के जैनमन्दिरों को दान दिये थे। उसका 914 ई. का बेगमारा ताम्रशासन भी एक जैनदानपत्र ही है। इसी कृष्णवल्लभ नृप के शासनकाल में, 903 ई. में धवल विषय के मूलगुण्ड नामक नगर में वैश्य जाति में उत्पन्न प्रसिद्ध चन्द्रार्य के पुत्र चिकार्य ने जो सुन्दर एवं उन्नल जिनभवन बनवाया था, उसके लिए उसके पुत्रों नागार्य और अरसार्य ने चन्दिकावाट के सेनान्वयी पूज्यपाद कुमारसेन के प्रशिष्य और वीरसेन के शिष्य कनकसेन मुनि को कन्दवर्ममाल क्षेत्र में तथा अन्यत्र भूमि का दान दिया था। उसी अवसर पर उक्त जिनालय के लिए अडियो त
ने भी दान दिया था। इसी राष्ट्रकूट नरेश के प्रश्रय में कन्नड़ी भाषा के जैन महाकवि गुणदर्भ ने अपने हरिवंश पुराण की रचना की थी ।
इन्द्र तृतीय (914-922 ई.)- कृष्ण द्वितीय की अपनी प्राक वृद्धावस्था में ही राज्य प्राप्त हुआ था और उसके पुत्र जगत्तुंग की मृत्यु उसके जीवनकाल में ही हो गयी थी, अतएव कृष्ण के उपरान्त उसका पौत्र इन्द्र तृतीय नित्यवर्ष रकन्दर्प राजा हुआ। उसने मालवा के उपेन्द्र परमार को पराजित करके अपने अधीन किया और देश के चालुक्यों को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया। कन्नौज के महीपाल को भी उसने युद्ध में पराजित किया बताया जाता है। उसके दुर्धर सेनापति नरसिंह और श्रीविजय दोनों ही जैनधर्म के अनुयायी थे। श्रीविजय का विरुद 'अरिविनगोज' था, और यह श्रेष्ठ कवि भी था - शस्त्र और शास्त्र दोनों ही विद्याओं में अद्वितीय समझा जाता था। जीवन के अन्तिम भाग में संसार का परित्याग करके वह जैन मुनि हो गया था। राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय इतना भारी दानी था कि 914 ई. में कुरन्धक नामक स्थान में जब उसका पबन्धोत्सव मनाया गया तो कहा जाता है कि उसने विविध धर्मगुरुओं, धर्मायतनों और याचकों को चार सौ ग्राम दान में दिये थे। उसके वजीरखेड़ा ताम्रशासन में लिखा है कि उसको जननी लक्ष्मीदेवी चेदिनरेश कोक्कल को पौत्री और शंकरमण की पुत्री तथा चालुक्य सिन्दुक की दौहित्री थी, और पिता कृष्णराज का महापराक्रमी, हिमांशु-वंशतिलक पुत्र राजकुमार जगत्तुंग था जिसने अनेक शत्रुओं का दर्पदलन किया था। लेख में स्वयं इन्द्र की प्रशस्ति और उसके अनेक विरुद्धों को देने के उपरान्त लिखा है कि उसने राजधानी मान्यखेट में विराजते हुए और अपने पबन्धोत्सव (राज्याभिषेक) के
राष्ट्रकूट- चोल - उत्तरवर्ती चालुक्य कलचुरि : 123