SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ के शासक थे और जिनभक्त थे। उनका भानजा उपर्युक्त विमलादित्य, जो रणचतुर और चतुरजनाश्रय था, स्वयं कुनुन्गिल देश (प्रदेश) का शासक था। मुनि अर्ककीर्ति में विपलादित्य को शनिश्चर ग्रह की पीड़ा में सक्त किया था. यह इस दान का प्रधान प्रेरक कारण था। इस लेख में भी राष्ट्रकूटों की वंशावली और उनके, विशेषकर गोविन्द त. के विजयों, प्रताप आदि का वर्णन है। दाटनगर का जैन अधिष्ठान तो सम्राट् से प्रारम्भ से ही संरक्षण पाता रहा था। वहीं अब स्वामीवीरसेन के सुयोग्य पट्टशिष्य स्वामी जिनसेन गुरु द्वारा अधुरे छोड़े गये कार्य की पूर्ति में शान्तिपूर्वक संलग्न थे। उनके सधर्मा दशरथ गुरु, विनयसेन, पद्मसेन और वृद्धकुमारसेन तथा स्वामी विद्यानन्द, अनन्तकीर्ति, रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य, परवादिमल्ल आदि अनेक विद्वान् जैन गुरु राष्ट्रकूट साम्राज्य को सुशोभित कर रहे थे। महाकवि स्वयम्भू मी सम्भवतया मुनि हो गये थे और श्रीपाल नाम से प्रसिद्ध हुए थे। आचार्य जिनसेन द्वारा जवधवल (धीरसेनीया टीका) की पूर्ति, सम्पादन आदि में श्रीपाल मुनि का पर्याप्त योग रहा। स्वयम्भू के पुत्र त्रिभुवन-स्वयम्भू भी श्रेष्ठ कवि थे और इस काल में उन्होंने अपने पिता के रामायण आदि महाग्रन्थों का संशोधन, परिवर्धन, सम्पादन आदि किया था। गोविन्द न. के वह विशेष कृपापात्र रहे प्रतीत होते हैं। इस नरेश के शासनकाल में जैनधर्म खूब फल-फूल रहा था। सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम-नृपतुंग, शर्ववर्म, अतिशय-धवल, महाराज-शण्ड, वीरनारायण, श्रीवल्लभ, पालभराय आदि विरुघारी इस राष्ट्रन्ट सम्राट का जैनधर्म के परम पोषक एवं भक्त महान सम्राटों में उल्लेखनीय स्थान है। इसमें भी सन्देह नहीं है कि राज्य विस्तार, शक्ति, समृद्धि, वैभव आदि की दृष्टि से यह अपने समय का भारत का प्रायः सर्वमहान सम्राटू था। उसका राज्यकाल भी सुदीर्घ था-साठ वर्ष से अधिक उसने राज्य का उपभोग किया। उसका जन्म 804 ई. में उस समय हुआ था जब उसका पिता गोविन्द त, उत्तरापथ की अपनी एक बिजययात्रा से लौटते हुए नर्मदा के किनारे श्रीभक्त नामक स्थान में छावनी डाले पड़ा था। अतएवं 15 ई. में जब उसे पिता की मृत्यु पर राज्य का उत्तराधिकार मिला तो वह दस-ग्यारह वर्ष का बालक मात्र था। किन्तु उसके पिता ने राज्य की भींय पर्याप्त सुदृढ़ कर दी थी और कई स्वामिभक्त एवं विश्वासपात्र राजपुरुष पैदा कर दिये थे। इनमें सर्वोपरि अमोघवर्ष के स्वाया और गुर्जरदेश के शासक इन्द्र का पुत्र एवं उत्तराधिकारी ककराज था, जो बालं राजा का सुयोग्य एवं सक्षम अभिभावक और संरक्षक हुआ। स्थिति का लाभ उठाकर जो विद्रोह आदि हुए उन सबका दमन करके 821 ई. में नवीन राजधानी मान्यखेट में ककराज ने अमोघवर्ष का विधिवत राज्याभिषेक किया। कर्कराज की ही भाँति साम्राज्य का महासेनापति जैन धीर यंकेयरस पूर्णतया स्वामिमक्त और सर्वथा सुयोग्य था। इन दोनों राजपुरुषों ने मिलकर साम्राज्य को स्यचक्र और परचक्र के समस्त उपद्रवों से सुरक्षित रखने का सफल प्रयत्म किया। राष्ट्रकूट-चौल-उत्तरवती चालुक्य-कलचुरि :: 117
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy