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की राजधानी के रूप में एलांस और मयूरखण्डी जैसे स्थान उपयुक्त नहीं रह गये थे। अपने पूर्वजों की भाँति जैनधर्म का अनुयायी वह भी नहीं था, तथापि उसके प्रति अत्यन्त उदार और सहिष्णु था, गुणियों और विद्वानों का वह आदर करता था। अपने 802 ई. के मन्नेदानपत्र द्वारा इस सम्राट् गोविन्द तृतीय प्रभूतवर्ष ने मान्यपुर (गंगों की राजधानी) के प्रसिद्ध जैन मन्दिर के लिए समस्त झरों से मुक्त करके जलधारा - पूर्वक एक ग्राम तथा अन्य भूमि का दान दिया था। उस समय सम्राट् स्वयं मान्यपुर में स्थित अपने विजय -स्कन्धावार में ठहरा हुआ था। उसके कुछ पूर्व ही उसने गंग शिवमार को पुनः बन्दी बनाकर गंगराज्य में अपने जेष्ठ भ्राता शौचकम्भ गावलोक को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। अतएव वह भी उस समय वहाँ उपस्थित था और इस दान का अनुमोदक था। गंग-नरेशों के समस्त सामन्त- सेनाधिपति राजा श्रीविजय को, जिसने वह भव्य मन्दिर कुछ वर्ष पूर्व ही बनवाया था, इस सम्राट् प्रभूतवर्ष ने अपना महा-विजय-निक्षेपाधिपति नियुक्त किया था। इस लेख में भी इस जैन वीर को भगवान् अर्हतु देव के चरणों में नित्य प्रणाम करने से जिसके उत्तम अंग पवित्र हो गये थे, ऐसा 'महासामन्ताधिपति महानुभाव कहा है। दान का प्रेरक समस्त सुभट-लोककेसरी आदि विरुदधारी वीर विक्रमैकरस का पीत्र और भक्त श्रावक atre का प्रिय पुत्र था, जो उदारदानी था और अपने शत्रुओं का दमन करनेवाला वीर युवक था । दान प्राप्त करनेवाले गुरु कुन्दकुन्दान्दय के उदारगण के शाल्मलीग्राम निवासी तोरणाचार्य के प्रशिष्य और पुष्पनन्दि के शिष्य वही प्रभाचन्द्र थे जिन्हें इसी श्रीविजयवसदि के लिए पाँच वर्ष पूर्व गंगनरेश ने दान दिया था। लेख में राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के पराक्रम, विजयों और सफलताओं का भी पर्याप्त उल्लेख है। सन् 807 ई. के चामराजनगर ताम्रशासन द्वारा गोविन्द तु. के भाई उसो रणावलोक कामराज ने अपने पुत्र शंकरगण की प्रार्थना पर गंगराजधानी तालवननगर ( तलकाड) की श्रीविजय-वसांदे के लिए बदनगुप्पे नाम का ग्राम कुन्दकुन्दान्यय के कुमारनन्द भट्टारक के प्रशिष्य और एलवाचार्य गुरु के शिष्य परम धार्मिक, दधान, विद्वान् वर्धमान गुरु को प्रदान किया था। यह जिनालय भी पूर्वोक्त सामन्तराज श्रीविजय द्वारा ही निर्मार्पित था । इस लेख से यह भी प्रकट है कि कम्भराज स्वयं सम्भवतचा उसकी पत्नी भी और पुत्र शंकरगण, जैनधर्म के भक्त थे । सन् 812 ई. के कदन - दानपत्र के द्वारा, जो सम्राट् ने स्वयं मयूरखण्डी के दुर्ग से प्रचारित किया था, उसने शिलाग्राम में स्थित जिनमन्दिर के लिए यापनीयनन्दिसंघ पुन्नागवृक्षभूलगण- श्रीकित्याचार्य-अन्वय के गुरु कूबिलाचार्य के अन्तेवासी विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति मुनि को जालमंगल नाम का ग्राम भेंट किया था। यह दान चालुक्य वंश के बलवर्म नरेन्द्र के पौत्र और राजा यशोवर्म के 'कुलदीपक सुपुत्र विमलादि के मामा चाकिराज की प्रार्थना पर दिया गया था । चाकिराज उस समय अशेष-गंगमण्डलाधिराज थे, सम्भवतया सम्राट्र की ओर से वे गंगवाडि प्रदेश
136 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं