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________________ S इस रूप में किया हैं। हल्लहराय (बल्लभराज ध्रुव) नरेन्द्रचूड़ामणि के राज्य में मासिकदेश (प्रान्त) के वाटनगर (वाटग्रामपुर) विषय में, जब उक्त प्रान्त का शासक युवराज जगतुंगदेथ था, पंचस्तूपान्थयी स्वामी वीरसेन ने, 780 ई. में, षदखण्डागम-सिद्धान्त की अपनी सप्रसिद्ध एवं विशालकाय श्रीधयत नाम्नी टीका को पूर्ण किया था। तदनन्तर उन्होंने कसायावाहुड की जयधवल टीका का लगभग एक-तिहाई भाग पूरा किया, महाधवल (महाबन्ध) निबद्ध किया, तथा सिद्धभूपद्धति आदि कतिपय अन्य ग्रन्ध रचे । इस दिग्गज आचार्य पुंगव ने अकेले लगभग एक लाख श्लोक परिमाण रचना की थी। दिगम्बर परम्परा के मूल आगमों के सर्वमहान् उपलब्ध भाष्य उपर्युक्त विशाल चौरसेनीय टोकाएँ ही हैं। उनका शिष्य परिवार भी अत्यन्त सुयोग्य और काफ़ी बड़ा था। वादनगर का उनका ज्ञानकेन्द्र उस युग का सम्पूर्ण भारतवर्ष का स्यात सर्वमहान जैन विद्यापीठ था। उसमें जितना विशाल पस्तक-संग्रह...शा...वैसा अन्यत्र कहीं नहीं था। सन् 190 के लगभग यह आचार्याशरोमणि दिवंगत हुए। स्वामी विद्यानन्द, परवादिमाल और गुरु कुमारसेन उस समय के राष्ट्रकूट राज्य के अन्य प्रसिद्ध जैनाचार्य एवं साहित्यकार थे। ___ गोविन्द तृतीय अंगसुंग-प्रभूतवर्ष-कीर्तिनारायण-त्रिभुवनधवल श्रीवल्लभ (799-874 ई.) ध्रुवधारावर्ष के चारों पुत्रों में सर्वाधिक योग्य और पराक्रमी था। स्वयं ध्रुव के राजा होने के पूर्व ही उसने अपनी योग्यता का सिक्का जमा लिया था और उसके शत्रुओं का दमन करने तथा उस (धुर्व) की राज्यप्राप्ति में वह उसका प्रधान सहायक रहा था। अतएव सिंहासन प्राप्त करते ही ध्रुव ने उसे 'युवराज घोषित कर दिया था, राजा की उपाधि दे दी थी, मयूरखण्डी की प्रधान छावनी का नियन्त्रक और उसके प्रभाव क्षेत्र में आनेवाले नासिकदेश का प्रान्तीय शासक बना दिया था। वीरसेन स्वामी का विद्यापीठ लिस वाटनगर विषय के मुख्य स्थान के निकट स्थित था वह इस राजन जगतुंगदेव के प्रत्यक्ष शासन में, अतएव संरक्षण एवं प्रश्रय में था। ध्रुव ने इस उद्देश्य से कि उसके पीछे राज्य के लिए उसके पुत्रों में अगड़ा न हो, अपनी मृत्यु के पूर्व ही गोविन्द तृतीय का राज्याभिषेक भी कर दिया था। तथापि अपने राज्यकाल में गोविन्द तृतीय को युद्धों से अवकाश नहीं मिला। भाइयों ने भी विद्रोह किये, शत्रुओं और अधीनस्थ राजाओं ने भी सिर उठाये, किन्तु इस प्रतापी नरेश ने सबका सफलतापूर्वक दमन किया। अनेक नये प्रदेश भी जीते और राज्य के विस्तार एवं शक्ति को पर्याप्त बढ़ाया । भारतवर्ष की समस्त राज्यशक्तियों उसका लोहा मानती थीं। निश्यय ही अपने समय का वह सर्वमहान् भारतीय सम्राट था। गुजरात का शासक उसने अपने आज्ञाकारी अनुज इन्द्र को बनाया था। उसने मान्यखेर (मलखेड) नाम की एक विशाल एवं सुदृढ़ माहानगरी का निर्माण भी आरम्भ कर दिया था, जिसे वह अपनी राजधानी बनाना चाहता था। उसके आज्ञानवर्ती बैंगिनरेश की देखरेख में मान्यखेट का सदृढ़ बाहरी प्राचीर बना इतने बड़े साम्राज्य राष्ट्रसूट-चोल-उत्तरवरी चालुक्य. कलचुरि :: 15
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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