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राष्ट्रकूट राजधानी के निकट ही नासिक विषय के याटनगर में जा बसे और यहाँ के चन्द्रप्रभ जिनालय एवं घामरक्षण के गुहामन्दिरों में उन्होंने अपना ज्ञानकेन्द्र स्थापित किया। जैनाचार्य विमलचन्द्र ने गंगनरेश श्रीपुरुष की भांति इस नरेश से भी सम्मान प्राप्त किया लगता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि अकलंक सम्बन्धी अनुश्रुति का 'राजन्साहसतुंग' भी राष्ट्रकुट दन्तिदुर्ग ही था, किन्तु यह सम्भव प्रतील नहीं होता, क्योंकि साहसलंग उपाधि मूलतया चालुक्यों की थी। चालुक्य अभिलेखों में उल्लिखित देवसंघ के आचार्य पूज्यपाद से अभिप्राय अकलंकदेव का ही है, और सातवीं शती के अन्त के लगभग से ही हम पूज्यपाद अकलंक के नहीं, वरन् उनके शिष्य-प्रशिष्यों के उल्लेख पाते हैं. आठवीं शती का प्रथम पाद तो अकलंक की अधिक से अधिक अन्तिम अवधि हो सकती है।
दन्तिदुर्ग के उपरान्त उसश चौधों को प्रथम अकालवर्ष-शुभतुंम (757-773 ई.) राजा हुआ। वह भी भारी विजेता और पराक्रमी नरेश था। एलोरा के सुप्रसिद्ध कैलास मन्दिर के निर्माण का श्रेय उसे ही दिया जाता है। उसी समय के लगभग एलोरा के इन्द्रसभा, जगन्नाथसभा आदि प्रायः उतने ही सिद्ध एवं कलापूर्ण जैन गुहामन्दिर बनने प्रारम्भ हुए। पूर्वोक्त विमलचन्द्र के प्रशिष्य परवादिमल्ल जो भारी ताकिक और चादी थे, इसी राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम द्वारा सम्मानित हुए थे। एक बहुत याद की अमुश्रुति के अनुसार अकलंकदेव इस राष्ट्रक्ट शुभतुंग या उसके ब्राह्मण मन्त्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे, किन्तु यह धारणा सर्वथा भ्रान्त है-ऐसा होने की कोई भी सम्भावना नहीं है। इस किंवदन्ती का यदि कोई महत्व है तो केवल इतना ही है कि उत्तर काल के जैन इस नरेश के साथ जैनधर्म का सम्बन्ध जोड़ते थे तो वह उस धर्म का पोषक अवश्य रहा होगा। कृष्ण प्रथम का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वितीय (773-779 ई.) अयोग्य शासक था। युद्ध में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके अनुज धूव-धारावर्ष-निरुपम (779-793 ई.) ने सिंहासन हस्तगत किया । घोर, धवलइय, श्रीवल्लभ, कविवल्लभ, बोदणराय (बल्लहराय या वल्लभराधन) के मध्य देश तक उसने अपनी विजयपताका फहरायी थी और राष्ट्रकूट शक्ति को सम्पूर्ण भारतवर्ष में सर्वोपरि बना दिया था। उसकी पटरानी शीलभट्टारिका बेगि के चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ की पुत्री थी और जैनधर्म की मक्त थी तथा श्रेष्ठ कर्वायत्री भी थी। अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि स्वयम्भू ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमारचरित, स्वयम्भून्द आदि महान् ग्रन्थों की रचना इसी नरेश के आश्रय में उसी की राजधानी में रहकर की थी। कवि ने अपने काव्यों में घुवराय धवलइय माम से इस आश्रयदाता का उल्लेख किया है। स्वयम्भू की पत्नी सामिअब्बा भी बड़ी विदुषी थी। सम्राट् ने अपनी राजकुमारियों को शिक्षा देने के लिए उसे नियुक्त किया था। पुम्नाटसंधी आचार्य जिनसेन ने 783 ई. में समाप्त अपने हरिवंशपुराण के अन्त में इस नरेश का उल्लेख 'कृष्णानृप का पुत्र श्रीवरमान जी दक्षिणापथ का स्वामी था',
:: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ