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विजयादित्य ततीय का सेनानायक था और उसने कृष्णराज (राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण द्वितीय) के निवासस्थान किरणपुर को भस्म कर दिया था। पाण्डुरंग के पुत्र निरवद्य-धवल को 'कटकराज' का पट प्रदान किया गया था। कटकराज का पुत्र कटकाधिपति विजयादित्य था, जिसका पुत्र उपर्युक्त दुर्गराज था । इस प्रकार इस वंश में कम से कम चार पाड़ी से पूर्वी चालुक्यों के सेनापति का पद चला आ रहा था। स्वयं दुर्गराज को प्रशंसा में लिखा है कि वह प्रवरगणनिधि, धार्मिक, सत्यवादी, स्यागी-मोभी महात्मा, विजयी धीर एवं लक्ष्मीनिवास था और उसकी सलवार चालुक्य-लक्ष्मी की सुरक्षा के लिए सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह उक्त राज्य का शक्तिस्ता जालान की सिजाय भवान की पूजा के प्रबन्ध, भयन की मरम्मत, संस्कार आदि और एक सत्र (दानशाला) का संचालन था, जो उक्त जिनालय से सम्बद्ध था। उक्त कटकाभरण-जिनालय और उसके लिए प्रदत्त ग्राम, कर आदिक समस्त बाधाओं से मुक्त करके यापनीय संघ-कोटिमडुवगण-अर्हन्दिगच्छ के जिनमन्दि-मुनीश्वर के प्रशिष्य तपस्वी एवं धीमान् मुनि श्रीमान्दिरदेव को सौंप दिये गये थे। कलुयुम्थरु दानपत्र के अनुसार इस नरेश ने चालुक्य वंश के बट्टवर्द्धिक घराने की राजमहिला शामकाम्बा, जो शायद स्वयं राजा की गणिकापली थी, के निवेदन पर सर्वलोकाश्रय-जिनभयन के लिए उक्त ग्राम दान किया था । सम्भवतया इस देवालय का निर्माण 'समस्तभुवनाथय अम्मराज के माम पर ही उक्त धर्मात्मा महिलारत्न में कराया था जो स्वयं दान-दया-शीलयुता, बुध-श्रुतमिरता, जिनधर्म-जलविवर्धन-शशि, चारुश्रीः श्राविका थी। वह वलहारिगण-अङ्कलिगच्छ के मनि सकलचन्द्र-
सिद्धान्त के प्रशिष्य और अय्यपोटिमुनीन्द्र के शिष्य मुनि अर्हन्दि भट्टारक की शिष्या थी । उन्हीं को भक्तिपूर्वक यह दान दिया गया था। इन मुनि ने इस प्रशस्ति के लेखक गुम्सिमय को स्वयं पुरस्कृत किया था। दान का उद्देश्य उक्त जिनालय से सम्बद्ध सत्र या धमांद की भोजनशाला की मरम्मत एवं रख-रखाच आदि की व्यवस्था करना था। अम्म द्वितीय ने विजयवाटिका (बेजयाडा) के दो जिनमन्दिरों को भी दान दिया था, जिनमें सम्भवतया एक वह था जिसे पूर्वकाल में महारानी अय्यन-महादेवी ने भी दान दिया था।
विमलादित्य-अम्म द्वितीय की पाँचवीं पीढ़ी में, 1022 ई. के लगभग विमलादित्य नाम का राजा हुआ। वह भी जैनधर्म का परम भक्त था। देशीगण के
आचार्य त्रिकालयोगी-सिद्धान्तिदेव उसके गुरु थे। इस सजा ने अनेक जैनमन्दिरों को दान दिया। पूर्वोक्त रामगिरि भी 11वीं शताब्दी के मध्य पर्यन्त एक प्रसिद्ध एवं उन्नत जैन सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा, जैसा कि वहाँ से प्राप्त एक शिलालेख से प्रकट है। विपनादित्य के एक कम्मडी शिलालेख से या भी ज्ञात होता है कि उक्त त्रिकालयोगी-सिद्धान्तिदेव और सम्भवतया स्वयं वह राजा भी जैन तीर्थ रामगिरि की अम्दना करने गये थे। विमलादित्य के उपरान्त दो-तीन अन्य राजा हुए, और 11वीं
गंग-कदान-पल्लव-चालुक्य :: 111