SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि दसवीं शताब्दी के अन्तिम पाद. में एक नहीन राज्य शाजित, के रूप में रानुक्यों का पुनः अभ्युदय नहीं हुआ। बेंगि के पूर्वी चालुक्य वातापी के चालुक्य सम्राट पलकेशी द्वितीय के अनज कब्जविष्णवर्धन द्वारा 615 ई. में स्थापित इस वंश के क्रमश: 27 नरेशों ने आम्ध्रप्रदेश पर लगभग 500 वर्ष तक राज्य किया । मूलवंश की भांति इस शाखा के नरेश भी जैनधर्म के पोषक रहे और कई एक तो उसके परम भक्त हुए। स्वयं कुमयिष्णुवर्धन इस धर्म का आदर करता था, और उसकी रानी तो जिनधर्म के प्रति बड़ी निष्ठावान थी। उसकी प्रभावना के लिए उसने अपने पति राजा से कई ग्राम भेंट करवाये थे। इस देश के पाँचवें नरेश विष्णुवर्धन तृतीय ने जैनाचार्य कलिभद्र का सम्मान किया था और उन्हें दान दिया था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी विजयादित्य प्रथम की महारानी अध्यन महादेवी ने 762 ई. में उपर्युक्त दान की पुनरावृत्ति की थी। उसका उत्तराधिकारी विष्णुवर्धन चतुर्थ बड़ा पराक्रमी नरेश था और जैनधर्म का भी भक्त था। इस काल में विशाखापत्तनम् (विजगापट्टम) जिले के रामकोड (रामगिरि या रामतीर्थ) पहाड़ियों पर एक उच्चकोटि का जैन सांस्कृतिक केन्द्र विकसित हुआ था। त्रिकलिंग (आन्ध्र) देश के पेंगि प्रदेश की समतल भूमि के मध्य स्थित यह रामगिरि अनेक जैन गुहामन्दिरों, जिनालयों आदि से सुशोषित था। अनेक जैन मुनि यहाँ निवास करते थे। उक्स राजाओं के संरक्षण एवं प्रश्रय में ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा का यह विद्यापीठ फल-फूल रहा था। जैनाचार्य श्रीनन्दि उसके अधिष्ठाता थे। वह आयर्वेद आदि विभिन्न विषयों में निष्णात भारी विद्वान थे। स्वयं महाराज विषवर्धन चतुर्थ इन आचार्य के घरणी की पूजा करता था। इन्हीं के प्रधान शिष्य 'कल्याणकारक' नामक प्रसिद्ध वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता, आयुर्वेद के महापण्डित जग्रादित्याचार्य थे जो राष्ट्रकूर अमोघवर्ष-जैसे अन्य नरेशों द्वारा भी सम्मानित हुए थे। अम्मराज-तदनन्तर कई राजाओं के उपरान्त इस वंश में अम्मराज द्वितीय (945-970 ई.) नाम का बड़ा प्रतापी एवं धर्मात्मा नरेश हुआ। इस राजा का अपरनाम विजयादित्य पष्ट और विरुद समस्त-भुवनाश्रय' था। वह भीम द्वितीय की महारानी लोकमहादेवी से उत्पन्न हुआ था। यद्यपि यह शिव और जिनेन्द्र का समान रूप से भक्त धा, उसके जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनसे प्रकट होता है कि आन्ध प्रदेश में 10वीं शती ई. में जैनधर्म पर्याप्त लोकप्रिय एवं उन्नत दशा में था। अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही इस नृपति ने अपने प्रधान सेनापति दुर्गराज द्वारा धर्मपुरी के निकट निर्मापित 'कटकाभरण' नाम के अति भव्य जिनालय के लिए मलियपूण्डि नामक ग्राम दान किया था। उक्त दुर्गराज का प्रपितामह पाण्डुरंग सम्भवतया :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy