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अंकित कराया था। उसके हलगिरि शिलालेख में जैन तीर्थक्षेत्र कोप्पण का उल्लेख है। अकलंकदेव के सधर्मा पुष्पसेन और पुष्पसेन के शिष्य विमलचन्द्र, मुनिकमारनन्दि
और अकलंक के प्रथम टीकाकार बृहत-अनन्तवीर्य इसी काल में और सम्भवतया इसी राजा के प्रश्रय में हुए थे। गनरेश श्रीपुरुष मुन्सरस भी उसका समकालीन था और उक्त विमलचन्द्र आदि गुरुओं का पोषक था। अपने राज्य के 34वें वर्ष (शक 651 म सन. 739) में महाराज. विजयारिला द्वितीय, ते आपत.. अस्तपुर के विजयस्कन्धाकार से पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) के उसी शंखजिनालय के हितार्थ अपने पिता के तथा अपने राजगुरु उदयदेवपण्डित को कर्दमनाम का गाँव दान दिया था। सन् 733 ई. में विकीर्णक नामक एक राज्यमान्य आदक ने भी उसी जिनालय के लिए पुष्कल दान दिया था। इसी 'चालुक्य-चक्रवर्ती विजयादित्यवल्लभ' की छोटी बहन कुंकुम महादेवी ने पुरिगेरी में एक भव्य जिनालय बनवाया था जो 11वीं शती के अन्त सक विद्यमान था । विजयादित्य द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी विक्रमादित्य द्वितीय (733-744 ई.) भी अपने पूर्वजों की भाँति जैनधर्म का भक्त था । अकलंक की परम्परा के विजयदेव पण्डित उसके राजगुरु और गृहस्थाचार्य थे। वह रामदेवाचार्य (जो सम्भवतया अकलंक देव के ही एक शिष्य थे) के प्रशिध्य और जयदेव पण्डित के अन्तेवासी (शिष्य) थे। इस भरेश के 735 ई. के लक्ष्मेश्वर शिलालेख में रामदेवाचार्य के लिए 'मूलसंघान्वय-देवमणोदिताय-परमतपः श्रुतमूर्तिविशोक' विशेषण दिये हैं, जयदेवपपिडत को "विजितविपक्षवादी' और विजयदेव-पण्डिताचार्य को "समुपमरीकवादि' लिखा है। भट्टाकलंक की परमास के विद्वानों के लिए के विशेषण उपयुक्त ही हैं। देवसंघ का प्रधान केन्द्र उक्त लक्ष्मेश्वर ही रहा प्रतीत होता है और उसके परम पोषक ये चालुक्य नरेश ही थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने उक्त तीर्थस्थान के शंखतीर्थवसति, धवल-जिनालय आदि जैनमन्दिरों का जीर्णोद्धार करावा और बाहुबलि मामक धर्मात्मा श्रेष्टि की प्रार्थना पर वहाँ के उक्त मन्दिरों की मरम्मत, रख-रखाव, जिनेन्द्र भगवान की पूजा तथा दानप्रवृत्ति को चालू रखने आदि के लिए बहुत-सी भूमि का दान, कर आदि सई बाधाओं से मुक्त करके दिया था। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन द्वितीय (744-757 ई.) यातापी के इस पश्चिमी चालुक्य वंश का अन्तिम चरेश था 1 अपने पिता द्वारा कांची के पल्लवों पर किये गये आक्रमण में भी उसने प्रशंसनीय भाग लिया था। किन्तु इधर दो दशकों से चालुक्यों के राष्ट्रकूट सामन्तों की शक्ति द्रुतवेग से बढ़ रही थी। अन्ततः 752 ई. के लगभग राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग ने चालुक्य सत्ता को छिन्न-भिन्न कर दिया, और 757 ई. में कीर्तिवर्मन द्वितीय की मृत्यु के साथ ही चालुक्यों का यह अध्याय समाप्त हुआ। वह स्वयं निःसन्तान था, अतएव उसके चाचा भीम पराक्रम की सन्तति राष्ट्रकूटस के गौण सामन्तों या उपराजाओं के रूप में जैसे-तैसे चलती रही, जब तक
गंग-कदम्ब-पल्लव चालुक्य :: 109