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था। इसी काल में अजन्ता और बदामी की बौद्ध एवं जैनगुफाओं के संसार-प्रसिद्ध भित्ति-चित्रों का निर्माण हुआ था। चीनी यात्री हेनसांग के आँखों देखें विचरण से भी पुलकेशी की शक्ति, महत्ता, राज्यवैभव, प्रजा की सुख-समृद्धि तथा विद्या एवं कला की साधना आदि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चालुक्य साम्राज्य में बौद्धों की अपेक्षा अन्न के मन्दिरी, साथी रहस्य अनुयायियों की संख्या कहीं अधिक थीं। पलकेशी के अन्तिम वर्षों में नरसिंहवर्मन पल्लव के साथ उसके भीषण युद्ध हुए। अन्ततः एक युद्ध में ही पलकेशी स्वयं वीरगति को प्राप्त हुआ। अपने छोटे भाई कुजविष्णुवर्धन को उसने आन्ध्रप्रदेश का शासक नियुक्त कर दिया था जिससे योग के पूर्वी चालुक्यों का वंश प्रारम्भ हुआ। सम्भवतवा पुलकेशी द्वितीय के शासनकाल में ही सुप्रसिद्ध दार्शनिक जैनाचार्य भट्टाकलंक देव का जन्म हुआ, जो उसी के एक जैन सापम्त लघुहव्य नृपति के पुत्र
थे।
पुलकेशी द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम 'साहसांक' (642-680 ई.) ही अकलंक सम्बन्धी अनुश्रुतियों का 'राजन् साहसतुंम प्रतीत होता है, जिसकी राजसभा में आचार्य ने अपनी बाद-विजयों का उल्लेख किया था। यह नरेश उन्हें अपना 'पूज्यपाद गुरु मानता था। राज्यप्राप्ति के समय उसकी स्थिति यड़ी डॉथाडोल थी, किन्तु इस "रणरसिक' 'साहसोत्तुंग' वीर ने कुछ वर्षों में ही अपने शत्रुओं का दमन कर दिया, और स्वपसकम द्वारा अपने प्रतापी पिता के साम्राज्य एवं प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार कर लिया, और तभी (653 ई. के लगभम) उसने अपना विधिवत राज्याभिषेक कराया। अपने आज्ञाकारी भाई जयसिंह को उसने लाटदेश का शासक बनाया, जिससे गुजरात के चौलुक्यों की वह शाखा चली जो 10वीं-12वीं शती में अत्यन्त प्रसिद्ध हुई।
विक्रमादित्य प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र विमयादित्य (680-196 ई.) राजा हुआ। उसके राजगुरु मूलसंघान्तर्गत देवगण के उपर्युक्त आचार्य 'पूज्यपाद' अकलंकदेव के गृही-शिष्य निरवद्मपण्डित थे जो भारी विद्याम् थे। अपने राज्य के सातवें वर्ष में, शक tits (सन् 687 ई.) में जब यह नृपति रक्तपुर के अपने विजय-स्कन्धाकार (छायमी) में ठहरा हुआ था, उसने देवमण के उपर्युक्त गृहस्थाचार्य, सम्भवतया निरवधपण्डित को दान दिया था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी विजयादित्य द्वितीय (687-733 ई.) ने पल्लवों के विरुद्ध किये गये अपने पितामह एवं पिता के युद्धों में सराहनीय भाग लिया था। अपने पराक्रम से अपने शत्रुओं को उसने बहुत कुछ दबाये रखा। पूज्यपाद (अकलंक) की परम्परा के उदयदेवपण्डित, जो सम्भवतया पूर्वोक्त निरबद्यपण्डित के शिष्य थे, इस नरेश के राजगुरु थे। सम् 700 ई. में उसने उन्हें लक्ष्मेश्यर के शंख-जिनेन्द्र-मन्दिर के लिए दान दिया था। इसी समय के लगभग उसने राजधानी वातापी में भी एक दानसूचक कन्नड़ी शिलालेख
10 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ