SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5M के पांच सौ शिष्यों में अग्रणी नागदेव चितकाचार्य के सुशिष्य, समस्तशास्त्रसम्बोधिधी आचार्य जिननन्दि को चार ग्राम तथा अन्य बहुत-सी भूमि का दान दिया था। राजधानी वातापी में भी उस काल में एक जिनालय बना प्रतीत होता है। पुलकेशी प्र. का पुत्र एवं उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन प्रथम था। उसने भी अपने पराक्रम से राज्य के विस्तार में वृद्धि की थी। उसके राज्यकाल (सम्भवतया 567 ई.) में दोण, एल आदि कई ग्रामप्रमुखों ने एक जिनालय बनवाया था, जिसके लिए सिन्दरस के पुत्र पाण्डीपुर-नरेश माधत्तियरस की अनुमति से परलूरगाम के आचार्य विनयनन्दी के प्रशिष्य और वासुदेव गुरु के शिष्य प्रभाचन्द्र मुनि को दान दिया था। दान भगवान की पूजा के लिए अक्षत (अखण्डित चावल), गन्ध (धूप), पुष्प आदि की व्यवस्था के लिए था और कर्मगलूर की पश्चिम दिशा में स्थित धान के खेतों के राजकीय माप से आठ मत्तल चावलों का था। प्रायः इसी काल में जैन पण्डित रविकीर्ति ने ऐहोल के निकट मेगुती में एक सुन्दर जिनमन्दिर बनवाया था और वहाँ एक विद्यापीठ की स्थापना कति पी। स्वयं होल में एक महर राडापन्दिया जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की. सहस्त्रफणी प्रतिमा स्थापित थी। कीर्तिवर्मन के पश्चात उसका छोटा भाई मंगलीश राजा रहा और तदनन्तर कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेशी द्वितीय । चालुक्य सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय सत्याश्रय पृथ्वीवल्लभ (608-647 ई.) वंश का सर्वमहान् नरेश था। प्रायः पूरे दक्षिण भारत पर उसका अधिकार था और कन्नौज के सम्राट हर्षवर्द्धन का यह सबसे प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। हर्ष को पराजित करके ही उसने परमेश्वर' उपाधि धारण की थी। ईरान के शाह खुसरो के साथ उसके राजनीतिक आदान-प्रदान हुए थे. वड सर्वधर्म-समदर्शी था और जैन नहीं था, तथापि जैन धर्म का प्रबल पोषक वा..सन् 634 ई. में अपनी दिग्विजय के उपरान्त जब नरेश ने राजधानी वातापी में प्रवेश किया तो उसके विशाल साम्राज्य की सीमा रेवा नदी को स्पर्श करती थी. दक्षिण में समुद्र से समद्र पर्यन्त उसका विस्तार था। समुद्र में स्थित अनेक दीपों का भी. वह स्वामी था। पश्चिम में गुजरात और पूर्व में आन्ध प्रदेश को उसने अपने साम्राज्य में मिला लिया था। उस अवसर पर राजधानी में प्रवेश करने के उपरान्त सम्रा का सर्वप्रथम कार्य अपने गुरु जैन पण्डित रविकीर्ति को उनके द्वारा ऐहोल की मेगुती पहाड़ी पर निर्मापित जिनमन्दिर एवं अधिष्ठान के लिए उदार दान देकर सम्मानित करना था। इस समय सम्भवतया वहाँ किसी नवीन जिनालय का भी निर्माण एवं प्रतिष्ठा हुई थी। रविकीर्ति भारी विद्वान् एवं महाकवि थे। उनकी काव्य-प्रतिभा की तुलना कालिदास और भारवि के साथ की जाती थी ? इस दान के उपलक्ष्य में स्वयं रविकीर्ति ने सम्राट् पुलकेशी की वह विस्तृत, भाव एवं कलापूर्ण संस्कृत प्रशस्ति रची थी जो उक्त मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण है और उस नरेश के चरित्र एवं कार्यकलापों के लिए सर्वप्रथम ऐतिहा आधार है। इसी वर्ष अदूर (धारवाड़) में नगरसेठ द्वारा निमापित जैनन्दिर को भी सम्राट ने दान दिया मंग-कदम्च-पनव-धातुक्र :: 03
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy