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प्रमाणमीमांसा
स्यात्-विपक्ष एव यो नास्ति स हेतुः, तथा च प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सपक्षेऽपि नास्ति ततो न हेतुः स्यात्ततः पूर्वं न कृतम् । निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽनकान्तिको निरस्तः । तदेवं त्रैरूप्यमेव हेतोरसिद्धादिदोषपरिहारक्षममिति तदेवाभ्युपगन्तुं युक्तमिति किमेकलक्षणकत्वेनेति?।।
३३-तदयुक्तम्,अविनाभावनियमनिश्चयादेव दोषत्रयपरिहारोपपत्तेः। अविनाभावो ह्यन्यथानुपपन्नत्वम् । तच्चासिद्धस्य विरुद्धस्य व्यभिचारिणो वा न सम्भवति । त्ररूप्ये तु सत्यप्यविनाभावाभावे हेतोरगमकत्वदर्शनात्,यथा स श्यामो मैत्रतनयत्वात् इतरमैत्रपुत्रवदित्यत्र । अथ विपक्षानियमवती व्यावृत्तिस्तत्र न दृश्यते ततो न गमकत्वम् ; तहि तस्या एवाविनाभावरूपत्वादितररूपसद्भावेऽपि तदभावे हेतोः स्वसाध्यसिद्धि प्रति गमकत्वानिष्टौ सैव प्रधानं लक्षणमस्तु । तत्सद्भावेऽपररूपद्वयनिरपेक्षतया गमकत्वोपपत्तेश्च, यथा सन्त्यद्वैतवादिनोऽपि प्रमाणानि इष्टानिष्टसाधनदूषणान्यथानुपपपत्तेः । न चात्र पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं चास्ति, केवलमविनाभावमात्रेण 'विपक्ष में ही जो न हो वह हेतु है ।' ऐसी स्थिति में प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु सपक्ष में भी नहीं रहता है, अतः वह हेतु न हो सकता । मगर वह हेतु है, अतएव सत्त्व से पूर्व में अवधारण नहीं किया गया है । 'निश्चित'शब्द के ग्रहण से १संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक अनैकान्तिक हेतु का निराकरण किया गया है।
३३-समाधान-बौद्धों का यह कहना अयुक्त है । अविनाभाव नियम के निश्चय से ही असिद्धता, विरुद्धता और अनैकान्तिकता, इन तीनों दोषों का परिहार हो जाता है । असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक हेतुओं में अन्यथानुपपत्ति (अविभाव) नहीं हो सकती । (असिद्धता आदि तीन दोषों को हटाने के लिए तीन लक्षणों की कल्पना करना वृथा है,क्योंकि अविनाभाव से ही ये दोष हट जाते हैं। ) बल्कि उक्त त्रैरूप्य के होने पर भी जहाँ अविनाभाव नहीं होता, वहाँ हेतु गमक नहीं होता। उदाहरणार्थ-गर्भस्थ मंत्रपुत्र श्याम है, क्योंकि वह मंत्रपुत्र है, अन्य मैत्रपुत्रों के समान । यहाँ आपके माने तीनों रूप विद्यमान हैं, फिर भी यह हेतु गमक नहीं है।
शंका-यहाँ नियमतः विपक्षव्यावृत्ति न होने के कारण यह अनुमान गमक नहीं है। समाधान-नियमतः विपक्षव्यावृत्ति हो तो अविनाभाव है। शेष दो लक्षणों (पक्षधर्मत्व और सपक्ष. सत्त्व) के होने पर भी यदि विपक्षव्यावृत्ति के अभाव में हेतु अपने साध्य का गमक नहीं होता तो विपक्षव्यावृत्ति को ही हेतु का प्रधान लक्षण मानना चाहिए । जहाँ विपक्षव्यावृत्ति होती है वहाँ शेष दो लक्षण न हों तो भी हेतु गमक हो जाता है। उदाहरणार्थ- अद्वैतवादी के मत में भी प्रमाण हैं, क्योंकि प्रमाणों के अभाव में वह इष्ट का साधन और अनिष्ट का निषेध नहीं कर सकता।' यहाँ न पक्षधर्मता है और न सपक्षसत्ता है, फिर भी आविनाभाव के बल से हेतु गमक होता ही है। २-यह पुरुष असर्वज्ञ है,क्योकि ६वता है । यहाँ ककताव हेतु विपक्ष- सर्वज्ञ में भी रह सकता है।