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________________ प्रमाणमीमांसा निरस्तः । सपक्षे एव सत्त्वं निश्चिमिति द्वितीयं रूपम् । इहापि सत्त्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्तः । स हि नास्ति सपक्षे । एवकारेण साधारणानकान्तिकः, स हि न सपक्षे एव वर्तते किं तु विपक्षेऽपि । सत्त्वग्रहणात् पूर्वमवधारणकरणेन सपक्षाव्यापिनोऽपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेर्हेतुत्वमुक्तम्, पश्चादवधारणे हि अयमर्थः स्यात्-सपक्षे सत्त्वमेव यस्य स हेतुरिति प्रयत्नानन्तरीयकत्वं न हेतुः स्यत् । निश्चितवचनेन सन्दिग्धान्वयोऽनैकान्तिको निरस्तः यथा सर्वज्ञः कश्चिद्वक्तृत्वात्, वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे सन्दिग्धम् । विपक्षे त्वसत्त्वमेव निश्चितमिति तृतीयं रूपम् । तत्रासत्त्वग्रहणेन विरुद्धस्य निरासः । विरुद्धो हि विपक्षेऽस्ति । एवकारेण साधारणस्य विपक्षकदेशवृत्तेनिरासः, प्रयत्नानन्तरीयकत्वे हि साध्येऽनित्यत्वं विपक्षकदेशे विद्युदादावस्ति, आकाशादौ नास्ति । ततो नियमेनास्य निरासोऽसत्त्वशब्दात् । पूर्वस्मिन्नवधारणे हि अयमर्थः (२) सपक्षसत्त्व-'सपक्षे एव सत्त्वं निश्चितं अर्थात् सपक्ष में ही सत्त्व निश्चित होना' यह हेतु का दूसरा लक्षण है । यहाँ भी 'सत्त्व' के ग्रहण से विरुद्ध हेतु का निराकरण किया गया है क्योंकि विरुद्ध हेतु सपक्ष में नहीं रहता । 'हो' (एव) का प्रयोग करके साधारण अनेकान्तिक हेतु का निषेध किया गया है, क्योंकि वह 'सपक्ष में हो' नहीं रहता वरन् विपक्ष में भी रहता है। 'सत्त्व' शब्द से पूर्व में 'ही' का प्रयोग करके यह प्रकट किया गया है कि सपक्ष में व्याप्त होकर न रहने वाले अर्थात् सपक्ष के एक देश में रहने वाले हेतु भी सम्यक् हेतु होते हैं अर्थात् यह आवश्यक नहीं कि हेतु सपक्ष में पक्ष की तरह सर्वत्र व्याप्त ही होना चाहिए। यदि सत्व'के पश्चात् अवधारण करते तो 'सपक्षे सत्त्वमेव' अर्थात् सपक्ष में सत्त्व ही होना हेतु का लक्षण है, ऐसा अर्थ होता । इस प्रकार कहने से 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' हेतु न रहता, क्योंकि वह सपक्ष के एक देश में ही रहता है । 'निश्चित' शब्द के प्रयोग से संदिग्धान्वय अनैकान्तिक हेतु का निराकरण किया गया है । जैसे-कोई पुरुष सर्वज्ञ है, क्योंकि वह वक्ता है, यहाँ वक्तृत्व हेतु सपक्ष सर्वज्ञ में संदिग्ध है, निश्चित नहीं है। (३) विपक्षासत्त्व-विपक्ष में असत्त्व ही निश्चित होना, यह तीसरा लक्षण है। यहाँ 'असत्त्व'शब्द के प्रयोग से विरुद्ध हेतु का निराकरण किया गया है,क्योंकि विरुद्ध हेतु का विपक्ष में असत्त्व नहीं होता-सत्त्व होता है । 'हो' (एव) के प्रयोग से विपक्ष के एक देश में रहने वाले साधारण अनैकान्तिक हेतु का विवंध किया गया है। २प्रयत्नानन्तरीयकत्व साध्य में प्रयुक्त अनित्यत्व हेतु विपक्ष के एक देश विद्युत् आदि में रहता है, आकाश आदि में नहीं रहता। अतएव 'असत्त्व ही होना' कहने से उसका निषेध हो जाता है। यदि असत्त्व से पूर्व अवधारण किया होता तो ऐसा अर्थ निकलतादि नित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है, यहाँ 'प्रमेयत्व' हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में सर्वत्र रहता है,अतएमाधारण बनेकान्तिक है। २- शब्द प्रयत्नजन्य है, क्योंकि अनित्य है। यहाँ अनित्यत्व हेतु है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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