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प्रमाणमीमांसा रप्रतिपत्तेः; नापि स्वनिश्च (स्वविष) यज्ञानापेक्षं यथा प्रदीपो घटादेः, दृष्टादप्यनिश्चिताविनाभावादप्रतिपत्तेः । तस्मात्परोक्षार्थनान्तरीयकतया निश्चयनमेव लिङ्गस्य व्यापार इति 'निश्चित' ग्रहणम् ।
३२-ननु चासिद्धविरुद्धानकान्तिकहेत्वाभासनिराकरणार्थ हेतोः पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षाद् व्यावृत्तिरिति त्रैलक्षण्यमाचक्षते भिक्षवः । तथाहि-अनुमये धर्मिणि लिङ्गस्य सत्त्वमेव निश्चितमित्येकं रूपम् । अत्र सत्त्ववचनेनासिद्धं चाक्षुषस्वादि निरस्तम् । एट.कारेण पक्षकदेशासिद्धो निरस्तो यथा अनित्यानि पृथिव्यादीनि भूतानि गन्धवत्त्वात् । अत्र पक्षीकृतेषु पृथिव्यादिषु चतुषु भूतेषु पृथिव्यामेव गन्धधत्त्वम् । सत्त्ववचनस्य पश्चात्कृतेनैवकारेणासाधारणो धर्मो निरस्तः । यदि हनुमेय एव सत्त्वमित्युच्येत श्रावणत्वमेव हेतुः स्यात् । निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धासिद्धः सर्वो अनुमान होने लगता। यह भी नहीं है कि साधन को जान लेने मात्र से ही वह साध्य का ज्ञान करा दे, जैसे कि दीपक घट आदि का ज्ञापक हो जाता है । क्योंकि साधन के दिखाई देने पर भी यदि अविनाभाव निश्चित न हो तो उससे साध्य का ज्ञान होना संभव नहीं है । अतएव जहाँ साधन का ज्ञान होना आवश्यक है, वहीं यह भी आवश्यक है कि परोक्ष पदार्थ (साध्य) के साथ उसका अविनाभाव निश्चित होना चाहिए । यही सूचित करने के लिए सूत्र में निश्चित' पद का प्रयोग किया गया है।
३२-शंका-असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए बौद्धों ने हेतु के तीन लक्षण स्वीकार किये हैं-(१) पक्षधर्मत्व (२) सपक्षसत्त्व और (३) विपक्षव्यावृत्ति । (१)पक्षधर्मस्व-पक्ष-अनुमेयधर्मी (पर्वतादि) में हेतु का सत्त्व ही निश्चित होना'यह पहला लक्षण है । यहाँ 'सत्त्व' शब्द का प्रयोग करके १'चाक्षुषत्व' आदि असिद्ध हेतुओं की हेतुता का निराकरण किया गया है । सत्त्व हो' यहाँ 'ही' (एवकार) का प्रयोग करके पक्षकदेशासिद्ध (जो पक्षके एक देश में रहे और एक देश में न रहे ऐसे असिद्ध हेतु) का निषेध किया गया है। जैसे-पृथ्वी आदि भूत अनित्य हैं, क्योंकि गन्धवान् हैं । यहाँ पृथ्वी आदि चारों भूत पक्ष हैं किन्तु गन्धवत्त्व हेतु सिर्फ पृथ्वी में पाया जाता है । अतः यह पक्षकदेशासिद्ध हेत्वाभास है। ऐसे हेतुओं का निषेध करने के लिए यह कहा गया है कि 'पक्ष में सत्त्व ही' होना चाहिए । 'सत्त्व' शब्द के पश्चात् 'हो' का प्रयोग करके यह सूचित किया है कि जो हेतु असाधारण होता है अर्थात् पक्ष के अतिरिक्त सपक्ष में नहीं पाया जाता वह भी हेतु नहीं हो सकता। यदि ही' का प्रयोग सत्त्व के पूर्व में किया होता अर्थात् 'पक्ष में ही सत्त्व' ऐसा कहा होता तो २श्रावणही हेतु होता । 'नश्चित पद के प्रयोग से समस्त संदिग्धाद्धि हेतुओं का निराकरण किया गया है ।
१-शब्द नित्य है, क्यों कि वह चाक्षुष है; यहाँ चाक्षुषत्व हेतु असिद्ध है, क्योंकि पक्ष (शब्द) में उसकी सत्ता नहीं है । २-शब्द नित्य है, क्योंकि वह श्रावण है,यहाँ 'श्रावणत्व हेतु है। ..