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________________ ७२ प्रमाणमीमांसा १५०-तथा, तस्यैवात्मनः प्रमाणाकारेण परिणतिस्तस्यैव फलरूपतया परिणाम इत्येकप्रमात्रपेक्षया प्रमाणफलयोरभेदः । भेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तिः । अथ यत्रवात्मनि प्रमाणं समवेतं फलमपि तत्रैव समवेतमिति समवायलक्षणया प्रत्यासत्या प्रमाणफलव्यवस्थितिरिति नात्मान्तरे तत्प्रसङ्ग इति चेत्, न; समवायस्य नित्यत्वाद् व्यापकत्वान्नियतात्मवत्सर्वात्मस्वप्य विशेषान्न ततो नियतप्रमातृसम्बन्धप्रतिनियमः तत् सिद्धमेतत् प्रमाणात्फलं कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नं चेति ॥४१॥ . १५१-प्रमातारं लक्षयति स्वपराभासी परिणाम्यात्मा प्रमाता ॥४२॥ १५२.-स्वम् आत्मानं परं चार्थमाभासयितुं शीलं यस्य स 'स्वपराभासी' स्वोन्मुखतयाऽर्थोन्मुखतया चावभासनात् घटमहं जानामीति कर्मकर्तृक्रियाणां प्रतीते. 'अप्रमाण' की कल्पना करनी पडेगी । इसी प्रकार फलान्तर से व्यावृत्त होने के कारण फल को भी 'अफल' मानना पडेगा । अतएव प्रमाण और फल में भेद मानना चाहिए। १५०-तथा, उसी आत्मा का प्रमाण के रूप में परिणमन होता है और उसी आत्मा का फल के रूप में परिणाम होता है । इस प्रकार एक ही प्रमाता की अपेक्षा से प्रमाण और फल में अभेद भी है। (वैशेषिकमत के अनुसार) प्रमाण और फल का सर्वथा भेद माना जाय तो जैसे देवदत्त की आत्मा में उत्पन्न होने वाला फल जिनदत्त का नहीं कहलाता. उसी प्रकार वह देवदत्त का भी नहीं कहलाएगा। (क्योंकि वह जिनदत्त की तरह देवदत्त से भी भिन्न है ।) अतः प्रमाण-फल की कोई व्यवस्था नहीं होगी। शंका-जिस आत्मा में प्रमाण समवाय संबंध से रहता है, उसी आत्मा में फल का भी समवाय होता है। अतएव समवाय सम्बन्ध से प्रमाण और उसके फल की व्यवस्था हो जाती है। वह फल किसी दूसरी आत्मा का नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरी आत्मा में वह समवाय संबंध से नहीं रहता है । समाधान-समवाय संबंध से ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि समवाय को आपने नित्य और सर्वव्यापी माना है । वह किसी भी एक आत्मा के समान सभी आत्माओं में समान है, अतएव कोई फल अमुक आत्मा का ही है, यह निमय उससे बन नहीं सकता। अतएव यह सिद्ध हुआ कि प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न है और अभिन्न भी है ॥४१॥ १५१-प्रमाता का लक्षण(सूत्रार्थ-स्व और पर को जानने वाला तथा परिणमनशील आत्मा प्रमाता है॥४२॥ १५२-जिसका स्वभाव अपने स्वरूप को तथा पर-पदार्थ को जानना है,वह स्वपरावमासी' कहलाता है । ज्ञान स्वोन्मुख-अपनी ओर झुका हुआ और अर्थोन्मुख प्रतीत होता है। मैं घट को जानता हूँ' इस प्रकार की जो प्रतीति होती है, उसमें कर्म (घट) कर्ता (मैं-अहम् ) और क्रिया (जानता हूँ), इन सबका बोध होता है। इनमें से किसी भी एक के बोध का निषेध करने में
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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