SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा ७१ भिज्ञानं फलम् । ततोऽपि प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमूहः फलम् । ततोऽप्यूहः प्रमाणमनुमानं फलमिति प्रमाणफल विभाग इति ॥ ३९ ॥ १४६ - फलान्तरमाह हानादिबुद्धयो वा ॥४०॥ १४७ - हानोपादानोपेक्षाबुद्धयो वा प्रमाणस्य फलम् । फलबहुत्वप्रतिपादनं सर्वेषां फलत्वेन न विरोधो वैवक्षिकत्वात् फलस्येति प्रदिपादनार्थम् ॥४०॥ १४८ - एकान्तभिन्नाभिन्नफलवादिमतपरीक्षार्थमाहप्रमाणाद्भिन्नाभिन्नम् ॥४१॥ १४९-करणरूपत्वात् क्रियारूपत्वाच्च प्रमाणफलयोर्भेदः । अभेदे प्रमाणफल-भेदव्यवहारानुपपत्तेः प्रमाणमेव वा फलमेव वा भवेत् । अप्रमाणाद्व्यावृत्त्या प्रमाणव्यवहारः, अफलाद्व्यावृत्त्या च फलव्यवहारो भविष्यतीति चेत्; नैवम् ; एवं सति प्रमाणान्तराद्व्यावृत्त्याऽप्रमाणव्यवहारः, फलान्तराद्व्यावृत्त्याऽफलव्यवहारोऽप्यस्तु, विजातीयादिव सजातीयादपि व्यावृत्तत्वाद्वस्तुनः । उसका फल है, फिर प्रत्यभिज्ञान प्रमाण और ऊह उसका फल है और ऊह प्रमाण तथा अनुमान. उसका फल है । इस प्रकार प्रमाण और उसके फल का विभाग समझ लेना चाहिए ॥ ३९ ॥ १४६-अन्य फल बतलाते हैं - (सूत्रार्थ) - अथवा हानबुद्धि आदि फल हैं ॥ ४० ॥ १४७ - अथवा हानबुद्धि--त्याग करने की बुद्धि, ग्रहण करने की बुद्धि और उपेक्षा बुद्धि प्रमाण का फल है । यहाँ अनेक फलों का जो प्रतिपादन किया है, वह इसलिए कि इन सब के फल होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि फल प्रमाता की इच्छा के अनुसार होता है ॥४०॥ १४८- प्रमाण से फल को एकान्त भिन्न या एकान्त अभिन्न कहने वाले मत की परीक्षा(सूत्रार्थ - प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न और अभिन्न है ॥४१॥ १४९ -- प्रमाण करण हैं और फल क्रिया है, अतएव दोनों में भिन्नता भी है। एकान्त अभेद माना जाय तो 'प्रमाण और फल' इस प्रकार के भेद का व्यवहार नहीं हो सकेगा । या तो प्रमाण ही होगा या अकेला फल हो । शंका- दोनों में अभिन्नता होने पर भी अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण का और अफल की व्यावृत्ति से फल का व्यवहार हो सकता है।* समाधान- यह मान्यता ठीक नहीं । प्रत्येक वस्तु जैसे विजातीय पदार्थों से भिन्न होती हैं, उसी प्रकार सजातीयों से भी भिन्न होती है। अतएव जैसे अप्रमाण से व्यावृत्त होने से 'प्रमाण की' कल्पना करते हो, उसी प्रकार प्रमाणान्तर ( दूसरे प्रमाण ) से व्यावृत्त होने के कारण भी * * ( यह बौद्धों की मान्यता है । बौद्ध अन्यव्यावृत्ति को शब्द का अर्थ मानते हैं । उनके मतानुसार 'गो का अर्थ गलकंबलवाला चौपाया पशु नहीं किन्तु जो 'अगो' से भिन्न हो, वह गो' है । इसी प्रकार जो अप्रमाण न हो सो प्रमाण और अफल न हो सो फल, ऐसा व्यवहार एक ही वस्तु में माना जाता है ।)
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy