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________________ प्रमाणमीमांसा १११--जैमिनीयास्तु धर्म प्रति अनिमित्तत्वव्याजेन 'सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्ये-- न्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्"[ जैमि० १.१.४ ]इत्यनुवादभङ्गया प्रत्यक्षलक्षणमाचक्षते,यदाहः एवं सत्यनुवादित्वं लक्षणस्यापि सम्भवेत् । " (श्लोकवा० सू०४.६९) इति । व्याचक्षते च-इन्द्रियाणां सम्प्रयोगे सति पुरुषस्य जायमाना बुद्धिः प्रत्यक्षमिति । . ११२-अत्र संशयविपर्ययबुद्धिजन्मनोऽपीन्द्रियसंप्रयोगे सति प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गादतिव्याप्तिः । अथ 'सत्सम्प्रयोग' इति सता सम्प्रयोग इति व्याख्यायते तहि निरालम्बनविभ्रमा एवार्थनिरपेक्षजन्मानो निरस्ता भवेयुर्न सालम्बनौ संशयविपर्ययौ । अथ सति सम्प्रयोग इति सत्सप्तमी पक्ष एव न त्यज्यते संशयविपर्ययनिरासाय च 'सम्प्रयोग' इत्यत्र ‘सम्, इत्युपसर्गो वर्ण्यते, यदाह "सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः। दुष्टत्वाच्छुवितकायोगो वार्यते रजतेक्षणात्" श्लोकवा०स० ४, ३८.९) १११--प्रत्यक्ष धर्म का निर्णय करने में समर्थ नहीं है. ऐसा कहने के व्याज से प्रत्यक्ष का लक्षण जैमिनीय (मीमांसक) इस प्रकार कहते हैं--'सत् पदार्थ के साथ इन्द्रियों का संबंध होने पर आत्मा को जो ज्ञान (प्रत्यक्ष) होता है, वह धर्म के निश्चय में निमित्त नहीं होता. क्योंकि उससे वर्तमानकालीन पदार्थ हो जाने जा सकते हैं।' उन्होंने यह लक्षण साक्षात लक्षण के रूप में नहीं कहा है, अनुवाद रूप में कहा है । वे यही कहते हैं-'प्रत्यक्ष को धर्म में अनिमित्त बतलाने के साथ ही साय उसके लक्षण का भी अनुवाद (गौण रूप से कथन)हो जाता है।' ११२-यह जैमिनीय अपने लक्षण की व्याख्या इस प्रकार करते हैं--इन्द्रियों का संबंध होने पर पुरुष को उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है । परन्तु संशय और विपर्यय ज्ञान भी इन्द्रिय के साथ पदार्थ का संयोग होने पर ही उत्पन्न होते हैं, अतएव इस लक्षण के अनुसार वे भी प्रत्यक्ष हो जाएँगे । शंका-'सत्संप्रयोगे' का अर्थ है-सत् के साथ संयोग होने पर । अभिप्राय यह कि सत् पदार्थ के साथ इन्द्रिय का संयोग होने पर जो ज्ञान हो वह प्रत्यक्ष है, ऐसी व्याख्या करने से उक्त दोष नहीं रहता । समाधान-ऐसी व्याख्या करने पर निरालम्बन भ्रमरूप ज्ञानोंकी प्रत्यक्षता का तो निषेध हो जाएग, किन्तु संशय और विपर्यय ज्ञान की प्रत्यक्षता का निषेध नहीं हो सकता,क्योंकि यह दोनोंअप्रमाण ज्ञान निविषय नहीं है--पदार्थ (सत्) और इन्द्रिय के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं । शंका-सत् सम्प्रयोग (सत् पदार्थ में संयोग) इस अर्थ को तो ज्यों का न्यों रहने देते हैं, मगर यह कहते हैं कि सम्प्रयोग' शब्द में जो सत्' उपसर्ग है, उससे संशय और र्यय ज्ञान का निराकरण हो जाता है । कहा भी है__'सत' शब्द सम्यक् अर्थ में प्रयुक्त होता है । यहाँ सम्प्रयोग' शब्द दुष्प्रयोग का निवारण करने के लिए है। जब शुवितका (सीप) के साथ इन्द्रिय का संयोग होता है और रजत की प्रतीति होती है तो वह प्रयोग (योग) दूषित होने से सम्प्रयोग नहीं दुष्प्रयोग है । क्योंकि संयोग अन्य के साथ होता है और ज्ञान अन्य पदार्थ का होता है। .
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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