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प्रमाणमीमांसा
इति; तथापि प्रयोगसम्यक्त्वस्यातीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षानवगम्यत्वात्कार्यतोऽवगतिर्वक्तव्या। कार्यं च ज्ञानम्,न च तदविशेषितमेव प्रयोगसम्यक्त्वावगमनायालम् । न च तद्वि शेषणपरमपरमिह पदमस्ति । सता सम्प्रयोग इति च वरं निरालम्बनविज्ञाननिवृत्तये 'सति' इति तु सप्तम्यैव गतार्थत्वादनर्थकम् ।
११३-येऽपि “तत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षं यद्विषयं ज्ञानं तेन सम्प्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षं यदन्यविषयं ज्ञानमन्यसम्प्रयोगे भवति न तत्प्रत्यक्षम् ।" [ शाबर मा० १.१.५] इत्येवं तत्सतोर्व्यत्ययेन लक्षणमनवद्यमित्याहुः, तेषामपि क्लिष्टकल्पनैव, संशयज्ञानेन व्यभिचारानिवृत्तः । तत्र हि यद्विषयं ज्ञानं तेन सम्प्रयोग इन्द्रियाणामस्त्येव । यद्यपि चोभयविषयं संशयज्ञानं तथापि तयोरन्यतरेणेन्द्रियं संयुक्तमेव उभयावशित्वाच्च संशयस्य येन संयुक्तं चक्षुस्तद्विषयमपि तज्ज्ञानं भवत्येवेति नातिव्याप्तिपरिहारः । अव्याप्तिश्च चाक्षुषज्ञानस्येन्द्रियसम्प्रयोगजत्वाभावात् । अप्राप्यकारि च चक्षुरित्युक्तप्रायम् ।
११४-"श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका प्रत्यक्षम्" इति वृद्धसाङ्ख्याः । अत्र श्रोत्रा
समाधान-प्रयोग का सम्यक्पन अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जाना जा सकता।कार्य को देख कर ही उसका अनुमान किया जा सकेगा। प्रयोग का कार्य ज्ञान है और ज्ञान सामान्य से प्रयोग का सम्यकपन जाना नहीं जा सकता (क्योंकि ज्ञान सामान्य सम्प्रयोग से भी उत्पन्न होता है और दुष्प्रयोग से भी ।) उसको विशिष्टता बतलाने वाला कोई पद यहाँ नहीं है। 'सतां सम्प्रयोगः' अर्थात् सत् पदार्थों का प्रयोग सम्प्रयोग है, ऐसा समास निरालम्बन ज्ञान की प्रत्यक्षताका निराकरण कर सकता है और वह अर्थ तो 'सति सम्प्रयोगः' अर्थात् 'सत् पदार्थ के होने पर सम्प्रयोग' इसीसे प्रकट हो जाता है, अतएव निरर्थक है।
११३-जो लोग प्रत्यक्ष के लक्षणमें आए हुए 'तत्' और 'सत्' शब्दों में उलझ करके यह अभिप्राय निकालते हैं कि जिस वस्तु का ज्ञान हो उसीके साथ इन्द्रिय का संयोग होने पर है वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। जब इन्द्रिय का संयोग तो किसी अन्य पदार्थ के साथ हो किन्तज्ञान किसी अन्य ही पदार्थ का हो तब वह प्रत्यक्ष नहीं कहलाता उनका यह कथन वास्तव में क्लिष्ट कल्पना ही है। ऐसी कल्पना करने पर भी संशय ज्ञान में यह लक्षण चला जाता है। संशय में जिस वस्तुका ज्ञान होता है उसी के साथ इन्द्रियों का संयोग होता है।
यद्यपि संशयज्ञान दोनों वस्तुओं को विषय करता है तथापि दोनों में से किसीएक के साथ तो इन्द्रिय का संयोग होता ही है । संशय दोनों को विषय करता है, अतएव जिस वस्तु के साथचक्ष संयक्त है, तद्विषयक ज्ञान भी होता ही है । अतएव पूर्वोक्त लक्षण में आनेवाली अतिव्याप्ति का परिहार नहीं होता,इस के अतिरिक्त उक्त लक्षण में अव्याप्ति दोष भी है क्योंकि चाक्षष ज्ञान इन्द्रियसंयोग से उत्पन्न नहीं होता चक्षु अप्राप्यकारी है, यह पहले ही कहा जा चका है।
११४-वृद्ध सांख्यों का कथन है-श्रोत्रादि का निर्विकल्पक व्यापार प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है.