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प्रमाणमीमांसा
इत्यत्राह--
नार्थालोको ज्ञानस्य निमित्तमव्यातरेकात् ॥२५॥ ९२-बाह्यो विषयः प्रकाशश्च न चक्षुर्ज्ञानस्य साक्षात्कारणम्,देशकालादिवत्तु व्यवहितकारणत्वं न निवार्यते,ज्ञानावरणादिक्षयोपशमसामग्यामारादुपकारित्वेनांजनादिवच्चक्षुरुपकारित्वेन चाभ्युपगमात् । कुतः पुनः साक्षान्न कारणत्वमित्याह-'अव्यतिरेकात् व्यतिरेकाभावात् । न हि तद्भावे भावलक्षणोऽन्वय एव हेतुफलभावनिश्चयनिमित्तम्, अपि तु तदभावेऽभावलक्षणो व्यतिरेकोऽपि । न चासावलोकयोर्हेतुभावेऽस्ति; मरुमरीचिकादौ जलाभावेऽपि जलज्ञानस्य,वृषदंशादीनांचालोकाभावेऽपि सान्द्रतमतमःपटलविलिप्तदेशगतवस्तुप्रतिपत्तश्च दर्शनात् । योगिनां चातीतानागतार्थग्रहणे किमर्थस्य निमित्तत्वम्? । निमित्तत्वे चार्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वादतीतानागतत्वक्षतिः।
९३-न च प्रकाश्यादात्मलाभ एव प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वम्,प्रदीपादेर्घटादिभ्योऽनुत्पन्नस्यापि तत्प्रकाशकत्वदर्शनात्। ईश्वरज्ञानस्य च नित्यत्वेनाभ्युपगतस्य कथमर्थकी उत्पत्ति होती है । इस शंका का समाधान-(अर्थ)अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण नहीं हैं, क्योंकि व्यतिरेक घटित नहीं होता ॥२५॥
९२--बाह्य विषय और प्रकाश चाक्षुष ज्ञान में साक्षात कारण नहीं हैं। परन्त देश और काल की भाँति परम्परा कारण होने का यहाँ निषेध नहीं किया गया है। जैसे अंजन आदि पदार्थ नेत्र का उपकार करते हैं, उसी प्रकार बाह्य विषय और आलोक ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशय की सामग्री में दूर से उपकारक होते हैं । प्रश्न-वे साक्षात् कारण क्यों नहीं हैं ? उत्तर--ज्ञान के साथ उनका व्यतिरेक नहीं बनता। अमुक के होने पर ही अमुक का होना (जैसे अग्नि के होने पर ही धूम का होना )अन्वय कहलाता है और न होने पर न होना (जैसे अग्नि के न होने पर धूम का न होना) व्यतिरेक कहा जाता है । कार्यकारण भावका निश्चय अकेले अन्वय से ही नहीं होता किन्तु व्यतिरेक से भी होता है । अर्थात् जिसके होने पर ही कार्य हो और जिसके अभाव में कार्य न हो, वही उस कार्य के प्रति कारण कहलाता है अर्थ और आलोक को कारण मानने में व्यतिरेक घटित नहीं होता, क्योंकि मृगतृष्णा में जलके अभाव में भी जल का ज्ञान हो जाता है और सर्प, बिल्ली, उलक आदि को आलोक के अभाव में भी सघन अंधकार से व्याप्त प्रदेश में वस्तु का ज्ञान होता देखा जाता है । और योगी जन अतीतकालीन और अनागतकालीन पदार्थों को जानते हैं,वहाँ अर्थ कैसे निमित्त हो सकता है ? यदि अतीत-अनागत काल के.पदार्थों को ज्ञान का निमित्त मान लिया जाय तो वे अर्थक्रिया-जनक होने से सत् (विद्यमान) कहलाएंगे,अतीत और अनागत नहीं रह जाएँगे।
९३-यह आवश्यक नहीं कि प्रकाश्य से उत्पन्न हो कर ही प्रकाशक प्रकाशक कहलाए। दीपक आदि घट आदि से उत्पन्न न हकर भी उनके प्रकाशक देखे जाते हैं । ईश्वर का ज्ञान नित्य माना जाता है, वह अर्थजनित नहीं हो सकता। तथापि अर्थों का प्रकाशक तो होता ही है।