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________________ प्रमाणमीमांसा जन्यत्वं नाम ? । अस्मदादीनामपि जनकस्यैव ग्राह्यत्वाभ्युपगमे स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादेः प्रमाणस्याप्रामाण्यप्रसंगः । येषां चैकान्तक्षणिकोऽर्थो जनकश्च ग्राह्य इति दर्शनम् तेषामपि जन्यजनकयोञ्जनार्थयोभिन्नकालत्वान्न ग्राह्यग्राहकभावः सम्भवति । अथ न जन्यजनकभावातिरिक्तः सन्दंशायोगोलकवत् ज्ञानार्थयोः कश्चिद् ग्राह्यग्राहकभाव इति मतम्, "भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः। हेतुत्वमेव युक्तिज्ञा ज्ञानाकारार्पणक्षमम्"[प्रमाणवा० ३. २४७] इति वचनात ; हि सर्वज्ञज्ञानस्य वार्तमानिकार्थविषयत्वं न कथञ्चिदुपपद्यते वार्तमानिकक्षणस्याजनकत्वात् अजनकस्य चाग्रहणात् । स्वसंवेदनस्य च स्वरूपाजन्यत्वे कथं ग्राहकत्वं स्वरूपस्य वा कथं ग्राह्यत्वमिति चिन्त्यम् । तस्मात् स्वस्वसामग्रीप्रभवयो>पप्रकाशघटयोरिव ज्ञानार्थयोः प्रकाश्यप्रकाशकभावसम्भवान्न ज्ञाननिमित्तत्वमर्था-- लोकयोरिति स्थितम् ।। जो पदार्थ ज्ञान का जनक होता है वही उस ज्ञान के द्वारा ग्राह्य होता है,ऐसा नियम स्वीकार कर लिया जाय तो हमारे स्मरण और प्रत्यभिज्ञान प्रमाण भी अप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति ग्राह्य पदार्थ से नहीं होती। बौद्धमत के अनुसार पदार्थ एकान्ततः क्षणबिनश्वर है और ज्ञान का जनक पदार्थ ही ग्राह्य होता है । परन्तु जन्य और जनक का समय भिन्न-भिन्न होता है ऐसी स्थिति में उनमें ग्राह्य-ग्राहक भाव किस प्रकार हो सकेगा? शंका-जैसे संडासी और लोहे के गोले में प्राह्य-ग्राहकमाव संबंध है, इस प्रकार का कोई अलग ग्राह्य-ग्राहकभाव पदार्थ और ज्ञान में नहीं है । जन्यजनकसंबंध ही ज्ञान और पदार्थ का ग्राह्य-ग्राहक संबंध है । कहा भी है- 'भिन्नकालवौ पदार्थ ज्ञान के द्वारा किस प्रकार ग्राह्य हो सकता है ?"इसका उत्तर यह है कि पदार्थ का ज्ञान के प्रति कारण होना ही ज्ञान के द्वारा ग्राह्य होना कहलाता है । पदार्थ अपना आकार ज्ञान को अर्पित करता है अर्थात् अर्थ के आकार का हो जाता है और ज्ञान का अर्थाकार हो जाना हो अर्थग्राहक होता है । समाधान-यदि ज्ञानजनक होना ही ज्ञानग्राह्य होता है तो सर्वज्ञ का ज्ञान वर्तमानकालीन पदार्थों को किसी भी प्रकार ग्रहण नहीं कर सकेगा, क्योंकि वर्तमानकालीन पदार्थ ज्ञानका जनक नहीं होता वह ज्ञानका विषय भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त स्वसंवेदन (अपने ही स्वरूप को जाननेवाला)ज्ञान अपने आपसे उत्पन्न न होने के कारण अपना ग्राहक कैसे हो सकेगा? ज्ञानका स्वरूप ग्राह्य कैसे होगा? इन बातों पर आपको विचार करना चाहिए । अतएव जैसे दीपक अपने कारणों से उत्पन्न होता है और घट अपने कारणों से; फिर भी उनमें प्रकाश्य-प्रकाशकपन होता है, उसी प्रकार अपने अपने कारणों से उत्पन्न होने वाले ज्ञान और पदार्थ में भी प्रकाश्य-प्रकाशकभाव हो सकता है अर्थात् जैसे यह आवश्यक नहीं कि घटसे उत्पन्न हो कर ही दीपक घट को प्रकाशित करे, उसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि पदार्थ से उत्पन्न हो कर ही ज्ञान पदार्थ को प्रकाशित करे। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि पदार्थ और आलोक ज्ञानके साक्षात् कारण नहीं हैं।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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