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प्रमाणमीमांसा ८६-तत्र लब्धिस्वभावं तावदिन्द्रियं स्वार्थसंवित्तावात्मनो योग्यतामादधभावेन्द्रियतां प्रतिपद्यते । नहि तत्रायोग्यस्य तदुत्पत्तिराकाशवदुपपद्यते स्वार्थसंविद्योग्यतैव च लब्धिरिति । उपयोगस्वभावं पुनः स्वार्थसंविदि व्यापारात्मकम् । नाव्यापृतं स्पर्शनादिसंवेदनं स्पर्शादि प्रकाशयितुं शक्तम्, सुषुप्तादीनामपि तत्प्रकाशकत्वप्राप्तेः।
८७-स्वार्थप्रकाशने व्यापृतस्य संवेदनस्योपयोगत्वे फलत्वादिन्द्रियत्वानुपपत्तिरिति चेत्, न; कारणधर्मस्य कार्येऽनुवृत्तेः । नहि पावकस्य प्रकाशकत्वे तत्कार्यस्य प्रदीपस्य प्रकाशकत्वं विरुध्यते । न च येनैव स्वभावेनोपयोगस्येन्द्रियत्वम्, तेनैव फलत्वमिष्यते येन विरोधः स्यात् । साधकतमस्वभावेन हि तस्येन्द्रियत्वं क्रियारूपतया च फलत्वम् । यथैव हि प्रदीपः प्रकाशात्मना प्रकाशयतीत्यत्र साधकतमः प्रकाशात्मा करणम्, क्रियात्मा फलम्, स्वतन्त्रत्वाच्च कर्तेति सर्वमिदमनेकान्तवादे न दुर्लभमित्यलं प्रसंगेन ॥२३॥ ८८--'मनोनिमित्तः' इत्युक्तमिति मनो लक्षयति--
साथग्रहणं मनः ॥२४॥ ८६-लब्धि-इन्द्रिय आत्मा में स्व-परज्ञान की शक्ति उत्पन्न करती है। अतएव वह भावे. न्द्रिय कहलाती है। स्व और पर के संवेदन की शक्ति ही जिसमें न हो, उसमें आकाश की तरह स्व-परसंवेदन की उत्पत्ति नहीं हो सकती। और स्व--परसंवेदन की शक्ति ही लब्धि कहलाती है । उपयोग रूप भावेन्द्रिय स्व-परसंवेदन में व्यापारात्मक होती है। क्योंकि जब तक स्पर्श आदि संवेदन का व्यापार नहीं होगा तब तक वह स्पर्श आदि को जान भी नहीं सकेगा । यदि व्यापार के विना ही ज्ञान उप्पन्न होने लगे तो गहरी निद्रा में सोये पुरुष को भी स्व-पर-संवेदन हो!
८७-शंका-अपने और पदार्थ के प्रकाशन में व्याप्त संवेदन को उपयोग मानेंगे तो उसे इन्द्रिय नहीं कह सकते । वह तो फल (कार्य) है, उसे इन्द्रिय (करण) कसे कहा जा सकता है ? समाधान-ऐसा न कहिए । कारण का धर्म कार्य में भी आता है। अग्नि प्रकाशक है तो उसका कार्य दीपक प्रकाशक न हो, ऐसी बात तो नहीं है। उपयोग जिस स्वमाव से इन्द्रिय है, उसी स्वभाव से फल भी है, ऐसा हम नहीं मानते, जिसमें परस्पर विरोध हो। उपयोग साधकतम होने से इन्द्रिय है और क्रियारूप होने से फल भी है। जैसे 'बीपक अपने प्रकाशस्वभाव से प्रकाशता है' यहाँ दीपक का प्रकाशस्वभाव करण है और प्रकाशना क्रियारूप फल है। साथ ही दीपक स्वतत्र होने से कर्ता भी है। इस द्रकार की योजना अनेकान्त वाद में दुर्लभ नहीं है। इस को यहीं समाप्त करते हैं । २३॥
८८--सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में मन को मो निमित्त कहा था, अतः उसका स्वरूप बतलाते हैं-(अर्थ) सर्व अर्थ जिसके द्वारा ग्रहण किये जाएँ वह मन कहलाता है ॥२४॥