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________________ प्रमाणमीमांसा ८४--'द्रव्येन्द्रियम्' इत्येकवचनं जात्याश्रयणात् । नियतो विशिष्टो बाह्य आभ्यन्तरश्चाकारः संस्थानविशेषो येषां ते नियताकाराः'पूरणगलनधर्माणःस्पर्शरसगन्धवर्ण वन्तः 'पुद्गलाः', तथाहि श्रोत्रादिषु यः कर्णशष्कुलीप्रभृतिर्बाह्यः पुद्गलानां प्रचयो यश्चाभ्यन्तरः कदम्बगोलकाद्याकारः स सर्वो द्रव्येन्द्रियम्,पुद्गलद्रव्यरूपत्वात् । अप्राधान्ये वा द्रव्यशब्दो यथा अंगारमईको द्रव्याचार्य इति। अप्रधानमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम्, व्यापारवत्यपि तस्मिन् सन्निहितेऽपि चालोकप्रभतिनि सहकारिपटले भावेन्द्रियं विना स्पर्शाधुपलब्ध्यसिद्धः ॥२२॥ भावन्द्रियं लब्ध्युपयोगौ ॥२३॥ ८५-लम्भनं 'लब्धिः' ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः। यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्ति प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मनः परिणामविशेष उपयोगः । अत्रापि 'भावेन्द्रियम्' इत्येकवचनं जात्याश्रयणात् । भावशब्दोऽनुपसर्जनार्थः । यथैवेन्दनधर्मयोगित्वेनानुपचरितेन्द्रत्वो भावेन्द्र उच्यते तथैवेन्द्रलिंगत्वादिधर्मयोगेनानुपचरितेन्द्रलिंगत्वादिधर्मयोगि 'भावेन्द्रियम्' । ८४-सूत्र में सामान्य की अपेक्षा 'द्रव्येन्द्रियम्' यह एकवचनतान्त प्रयोग किया है । जिनका भीतरी या बाहरी आकार एक विशेष प्रकार का हो, उन्हें 'नियताकार' कहते हैं । जो पूरण और गलन अर्थात् मिलने एवं बिछुडने के स्वभाववाला है वह रूप, रस, गंध और वर्णवाला द्रव्य 'पुद्गल' कहलाता है। जैसे श्रोत्र आदि इन्द्रियों में कर्णशष्कुलो आदि जो बाह्य आकार है। और कदम्बगोलक आदि आभ्यन्तर आकार है, वह सब पुद्गल द्रव्यमय होने के कारण द्रव्येन्द्रिय है । जो प्रधान न हो वह भी 'द्रव्य' कहलाता है, जैसे अंगारों को कुचलने वाला आचार्य 'द्रव्याचार्य' कहलाता है। इस व्याख्या के अनुसार अप्रधान इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय कहलाती है। द्रव्येन्द्रिय को अप्रधानता का कारण यह है कि उसकी प्रवृत्ति होने पर भी और आलोक आदि सहकारी कारणों के विद्यमान होने पर भी भावेन्द्रिय के विना स्पर्श आदि का ज्ञान नहीं होता ॥२॥ भावेन्द्रिय का स्वरूप-(अर्थ) लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय हैं ॥२३॥ ८५-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशयविशेष को 'लब्धि' कहते हैं। जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की निवृत्ति के प्रति व्यापार करता है उसके निमित्त से होने वाला आत्मा का विशिष्ट परिणमन 'उपयोग कहलाता है । 'भावेन्द्रियम् यह एक वचन यहाँ भी सामान्य को अपेक्षा से प्रयोग किया गया है । 'भाव' शब्द प्रधानता का वाचक है। जैसे इन्दन (ऐश्वर्य भोग) रूप क्रिया के पाये जाने के कारण जिसमें इन्द्रत्व प्रधान वास्तविक है, उसे 'भावेन्द्र' कहा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रलिंगत्व आदि धर्म के योग से जिसमें इन्द्रलिंगत्व प्रधान-वास्तविक है, उसे भावेन्द्रिय' कहते हैं। तात्पर्य यह है-पहले कहा जा चुका है कि इन्द्र (आत्मा) के लिंग को इन्द्रिय कहते . हैं। यह व्युत्पत्ति मुख्य रूप से जिस इन्द्रिय में घटित होती है, वही भावेन्द्रिय कहलाती है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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