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प्रमाणमीमांसा
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प्रत्यासत्त्यन्तरस्य च व्यभिचारादिति । एतेन तेषामात्मना भेदाभेदैकान्तौ प्रतिव्यूढौ । आत्मना करणानामभेदैकान्ते कर्तृत्वप्रसंगः, आत्मनो वा करणत्वप्रसंगः, उभयोरुभयात्मकत्वप्रसंगो वा, विशेषाभावात् । ततस्तेषां भेदैकान्ते चात्मनः करणत्वाभावः सन्तानान्तरकरणवद्विपर्ययो वेति प्रतीतिसिद्धत्वाद्वाधकाभावाच्चानेकान्त एवाश्रयणीयः ।
८१--द्रव्येन्द्रियाणामपि परस्परं स्वारम्भकपुद्गलद्रव्येभ्यश्च भेदाभेदद्वारानेकान्त एव युक्तः, पुद् गलद्रव्यार्थादेशादभेदस्य पर्यायार्थादेशाच्च भेदस्योपपद्यमानत्वात् । ८२ - एवमिन्द्रियविषयाणां स्पर्शादीनामपि द्रव्यपर्यायरूपतया भेदाभेदात्मकत्वमवसेयम्, तथैव निर्वाधमुपलब्धेः । तथा च न द्रव्यमात्रं पर्यायमात्रं वेन्द्रियविषय इति स्पर्शादीनां कर्मसाधनत्वं भावसाधनत्वं च द्रष्टव्यम् ॥२१॥
८३ - ' द्रव्यभावभेदानि' इत्युक्तं तानि क्रमेण लक्षयतिद्रव्येन्द्रियं नियताकाराः पुद्गलाः || २२||
दूसरा संबंध मानने में बाधा आती है । तात्पर्य यह है कि एक पुरुष की पाँचों इन्द्रियाँ एकद्रव्यतादात्म्य से सम्बद्ध हैं । यही उनका अभेद है ।
यह तो इन्द्रियों के पारस्परिक भेद-अभेद की बात हुई । इससे आत्मा के साथ उनकी सर्वथा भिन्नता या सर्वथा अभिन्नता भी खंडित हो जाती है । यदि आत्मा से इन्द्रियों का एकान्त • अभेद माना जाय तो या तो आत्मा की तरह इन्द्रियों को भी कर्त्ता मानना पडेगा या इन्द्रियों की तरह आत्मा को भी करण मानना होगा, अथवा दोनों ही दोनों रूपों में स्वीकार करना होगा । आत्मा को कर्ता और इन्द्रियों को करण मानते हुए भी दोनों में सर्वथा अभेद कहना असंगत है। इसके विपरीत, यदि इन्द्रियों का आत्मा से एकान्त भेद मान लिया जाय तो दूसरे की इन्द्रियों के समान अपनी कहलाने वाली इन्द्रियाँ भी करण नहीं हो सकेंगी । अथवा विपर्यय हो जाएगापराई इन्द्रियाँ करण हो जाएँ और अपनी इन्द्रियाँ करण न हों (आत्मा से इन्द्रियों का सर्वथा पार्थक्य होने पर अपनी पराई इन्द्रियों में कोई विशेषता तो होगी नहीं) अतएव भेदाभेद के विषय में अनेकान्त का ही आश्रय लेना जाहिए, क्योंकि ऐसी ही प्रतीति होती है और उसमें कोई बाधा भी नहीं है ।
८१ - जिन पुद्गलद्रव्यों से द्रव्येन्द्रियाँ निर्मित होती हैं, वे परस्पर कथंचित् भिन्न- अभिन्न हैं । उनमें द्रव्य की अपेक्षा अभेद और पर्याय की अपेक्षा भेद की सिद्धि होती है ।
८२ - इसी प्रकार इन्द्रियों के विषय स्पर्श आदि भी द्रव्य की अपेक्षा अभिन्न और पर्याय की अपेक्षा भिन्न हैं । ऐसी ही निर्बाध प्रतीति होती है। अतएव इन्द्रियों का विषय न अकेला द्रव्य है, न अकेला पर्याय है । स्पर्श आदि शब्द कर्मसाधन हैं और भाव-साधन भी हैं । अर्थात् 'जिसे छुआ जाय वह स्पर्श कहलाता है और छूना भी स्पर्श कहलाता है ॥२१॥
द्रव्य और भाव ये दो भेद ( इन्द्रियों के ) कहे हैं । अब उनको क्रमशः बताते हैं८३-द्रव्येन्द्रिय का स्वरूप - ( अर्थ ) नियत आकार वाले पुद्गल द्रव्येन्द्रिय कहलाते हैं । २२ ॥