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प्रमाणमीमांसा
कीटक-पतंगादीनाम् । सह श्रोत्रेण तानि मत्स्य-उरग-भुजग-पक्षि-चतुष्पदानां तिर्यग्योनिजानां सर्वेषां च नारकमनुष्यदेवानामिति ।
७९--ननु वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दहेतवो वाक्पाणिपादपायूपस्थलक्षणान्यपोन्द्रियाणीति सांखयास्तत्कथं पञ्चैवेन्द्रियाणि ? ;न; ज्ञानविशेषहेतूनामेवेहेन्द्रियत्वेनाधिकृतत्वात्, चेष्टाविशेषनिमित्तत्वेनेन्द्रियत्वकल्पनायामिन्द्रियानन्त्यप्रसंगः, चेष्टाविशेषाणामनन्तत्वात्,तस्माद् व्यक्तिनिर्देशात् पञ्चैवेन्द्रियाणि ।
८०-तेषां च परस्परं स्यादभेदो द्रव्यार्थादेशात्, स्याद्भेदः पर्यायार्थादेशात्, अभेदकान्ते हि स्पर्शनेन स्पर्शस्येव रसादेरपि ग्रहणप्रसंगः । तथाचेन्द्रियान्तरकल्पना वैयर्थ्यम्, कस्यचित् साकल्ये वैकल्ये वान्येषां साकल्यवैकल्यप्रसंगश्च । भेदैकान्तेऽपि तेषामेकत्र सकल (सङ्कलन)ज्ञानजनकत्वाभावप्रसंगः सन्तानान्तरेन्द्रियवत् । मनस्तस्य जनकमिति चेत्, न; तस्येन्द्रियनिरपेक्षस्य तज्जनकत्वाभावात् । इन्द्रियापेक्षं मनोऽनुसन्धानस्य जनकमिति चेत्, सन्तानान्तरेन्द्रियापेक्षस्य कुतो न जनकत्वमिति वाच्यम्?। प्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् अत्र का प्रत्यासत्तिरन्यत्रैकद्रव्यतादात्म्यात् ?, कोट, पतंग आदि में होती हैं श्रोत्रसहित पाँचों इन्द्रियाँ मत्स्य,उरग, भुजग, पक्षी, चतुष्पद आदि तियंचों में तथा समस्त नारकों, मनुष्यों और देवों में होती हैं।
____७९-शंका-वचन, आदान, विहरण, मलोत्सर्ग और आनन्द का कारण वाक् पाणि, पाद पायु और उपस्थ-नामक पाँव इन्द्रियाँ और हैं, यह सांख्य मानते हैं। ऐसी स्थिति में पाँच ही इन्द्रियाँ क्यों ? समाधान-ऐसा न कहो । जो किसी विशिष्ट ज्ञान का कारण है, यहां उन्हीं को इन्द्रिय माना गया है। चेष्टा-विशेष के हेतुओं को यदि इन्द्रिय मान लें तो इन्द्रियाँ अनन्त हो जाएँगी, क्योंकि चेष्टाएँ अनन्त होती हैं। अतएव विशेष-निर्देश से इन्द्रियाँ पाँच ही हैं।
८०-पाँचों इन्द्रियाँ द्रव्याथिक नय को अपेक्षा से अभिन्न हैं और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से भिन्न हैं। उनमें यदि एकान्त अभेद माना जाय तो जैसे स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श का ग्रहण होता है उसी प्रकार उससे रस आदि का भी ग्रहण होना चाहिए । जब एक ही इन्द्रिय समी विषयों को ग्राहक हो जाएगी तो दूसरी इन्द्रियों को मानना वृथा ही ठहरेगा । इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय की पूर्णता होने पर सब की पूर्णता और एक की विकलता में सभी को विकलता हो जाएगी। इन्द्रियों का एकान्त भेद माना जाय तो जैसे भिन्न-भिन्न पुरुषों की इन्द्रियाँ किसी एक विषय में संकलनज्ञान (जोड़रूप ज्ञान) उत्पन्न नहीं कर सकतीं, उसी प्रकार एक पुरुष की इन्द्रियाँ भी नहीं कर सकेंगी। (मैने देखा भी है, सूंघा भी है, चखा भी है, छुआ भी है, इस प्रकार के संकलनज्ञान से उनको अभिन्नता भी सिद्ध होती है।)-शंका-यह संकलनज्ञान मन से होता है । समाधान-नहीं, इन्द्रियनिरपेक्ष मन उसे उत्पन्न नहीं कर सकता। -शंका-इन्द्रियों की सहायता से मन संकलनज्ञान उत्पन्न करता है। समाधान-तो दूसरे पुरुष की इन्द्रियों की सहायता से दूसरे पुरुष का मन क्यों नहीं अनुसन्धान करता? शंका-उनका उसके साथ सम्बंध नहीं है। समाधान-तो एक ही पुरुष को इन्द्रियों में एकद्रव्यतादात्म्य के अतिरिक्त अन्य क्या संबंध है ?