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प्रमाणमीमांसा - ७८--तत्र स्पर्शनेन्द्रियं तदावरणक्षयोपशमसम्भवं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनां शेषेन्द्रियावरणवतां स्थावराणां जीवानाम् । तेषां च "पुढवी चित्तमन्तमक्खाया" [दशव० ४. १] इत्यादेराप्तागमात्सिद्धिः । अनुमानाच्च--ज्ञानं क्वचिदात्मनि परमापकर्षवत् अपकृष्यमाणविशेषत्वात् परिमाणवत्, यत्र तदपकर्षपर्यन्तस्त एकेन्द्रियाः स्थावराः । न च स्पर्शनेन्द्रियस्याप्यभावे भस्मादिषु ज्ञानस्यापकों युक्तः। तत्र हि ज्ञानस्याभाव एव न पुनरपकर्षस्ततो यथा गगनपरिमाणादारभ्यापकृष्यमाणविशेषं परिमाणं परमाणौ परमापकर्षवत् तथा ज्ञानमपि केवलज्ञानादारभ्यापकृष्यमाणविशेषमेकेन्द्रियेष्वत्यन्तमपकृष्यते । पृथिव्यादीनां च प्रत्येकं जीवत्वसिद्धिरग्रे वक्ष्यते । स्पर्शनरसनेन्द्रिये कृमि-अपादिका-नूपुरक-गण्डूपद-शंख-शुक्तिका-शम्बूका-जलूकाप्रभृ-- तीनां त्रसानाम् । स्पर्शन-रसन-घ्राणानि-पिपीलका-रोहणिका-उपचिका-कुन्थु-तुबरक
पुस-बीज-कर्पासास्थिका-शतपदी-अयेनक-तृणपत्र-काष्ठहारकादीनाम् । स्पर्शन-रसनघ्राण-चढूंषि भ्रमर-वटर-सारंग-मक्षिका-पुत्तिका-दंश-मशक-वृश्चिक-नन्द्यावर्त्तहोने से रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र का ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा रसनेन्द्रिय कम जीवों को प्राप्त होती है,रसना की अपेक्षा घ्राण और भी कम जीबों को प्राप्त है.इसीप्रकार घ्राण की अपेक्षा चक्ष और चक्ष की अपेक्षा श्रोत्र इन्द्रिय कम जीवों को प्राप
७८-स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली स्पर्शनेन्द्रिय अकेली उन्हीं । पृथ्वीकाय, अपकाय,तेजस्काय,वायुकाय और वनस्पति काय के स्थावर जीवों को होती है,जिनको
शेष-इन्द्रियावरण का उदय है । 'पृथ्वी सचित्त कही गई है' इत्यादि आप्तप्रणीत आगम से स्थावर जीवों की सत्ता ।
___ अनुमान प्रमाण से भी उनकी सिद्धि होती है, यथा-किसी आत्मा में ज्ञान का परम अपकर्ष (चरम श्रेणी की न्यूनता) है क्योंकि ज्ञान अपकृष्ट होता हुआ देखा जाता है, जैसे परिमाण। अर्थात् जैसे परिमाण का परम प्रकर्ष आकाश में है, फिर अनुक्रम से लोकाकाश, मध्यलोक, जंबद्वीप आदि में कम होता-होता परमाणु में सब से कम है, इसी प्रकार ज्ञान का परम प्रकर्ष सर्वज्ञ में है, फिर अनेक जीवों में कम होते-होते कहीं सब से कम है। जिन जीवों में सबसे कम ज्ञान है अर्थात् ज्ञान का परम अपकर्ष है, वही स्थावर कहलाते हैं । शंका--स्पर्शनेन्द्रिय के भी अभाव में भस्म आदि में ज्ञान का अपकर्ष देखा जाता है। समाधान--भस्म आदि में ज्ञान का अपकर्ष (कमी) नहीं है, वहाँ तो उसका सर्वथा अमाव ही है । पृथ्वीकाय आदि जीव हैं.यह आगे कहेंगे स्पर्शन और रसना, यह दो इन्द्रियाँ कृमि, अपादिका, नपुरक, गण्डपद, शंख, शक्ति, शम्बका, जलौका आदि त्रस जीवों में पाई जाती हैं। स्पर्शन, रसना और घ्राण, यह तीन
द्रयाँ पिपीलिका, रोहणिका, उपचिका, कुन्थु,तुबरक, त्रपुस, बीज, कासास्थिका, शतपदी,
येनक, तृणपत्र, काष्ठहारक आदि जीवों में होती है। स्पर्शन, रसना घ्राण और चक्ष, यह . चार इन्द्रियाँ भ्रमर, वटर,सारंग, मक्षिका, पुत्तिका, वंश, मशक, नन्द्यावर्त्त, (क्षुद्र जन्तु विशेष)