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प्रमाणमीमांसा
६९-स्वामिकृतोऽपि-अवधिज्ञानं संयतस्यासंयतस्य संयतासंयतस्य च सर्वगतिषु भवति ; मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्य प्रकृष्टचारित्रस्य प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषु गुणस्थानकेषु भवति । तत्रापि वर्धमानपरिणामस्य नेतरस्य । वर्धमानपरिणामस्यापि ऋद्धिप्राप्तस्य नेतरस्य । ऋद्धिप्राप्तस्यापि कस्यचिन्न सर्वस्येति ।।
७०-विषयकृतश्च-रूपवद्रव्येष्वसर्वपर्यायष्ववधेविषयनिबन्धस्तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य इति । अवसितं मुख्यं प्रत्यक्षम् ॥१९॥
७१-अथ सांव्यवहारिकमाहइन्द्रियमनोनिमित्ताऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् ॥२०॥
७२--इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि, मनश्च निमित्तं कारणं यस्य स तथा । सामान्यलक्षणानुवृत्तः सम्यगर्थनिर्णयस्येदं विशेषणं तेन इन्द्रियमनोनिमित्तः' सम्यगर्थनिर्णयः । कारणमुक्त्वा स्वरूपमाह-'अवग्रहेहावायधारणात्मा' । अवग्रहादयो वक्ष्यमाणलक्षणाः त आत्मा यस्य सोऽवग्रहहावायधारणात्मा। 'आत्म' ग्रहणं च क्रमेणोत्पद्यमानानामप्यवग्रहादीनां नात्यन्तिको भेदः किन्तु पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तररूपतया होता है, अर्थात् जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में स्थित और उत्कृष्ट सम्पूर्ण लोक में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है, जब कि मनःपर्याय ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही होता है अर्थात् अढ़ाई द्वीप में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के पर्यायों को ही जानता है।
६९-स्वामिभेद-अविधज्ञान संयमी,असंयमी और संयमासंयमी को सर्व गतियों में होता है, मनः पर्यायज्ञान मनुष्य संयत और उत्कृष्ट चारित्रवाले मुनि को ही होता है। वह प्रमत्तसंयत से क्षीणकषायपर्यन्त गुणस्थानों में ही पाया जाता है। इनमें भी वर्धमान परिणामवाले को ही होता है अन्य को नहीं । वर्धमान परिणामवालों में से भी ऋद्धिप्राप्त को ही होता है, जो ऋद्धिसम्पन्न न हो उसे नहीं होता। ऋद्धिप्राप्त में से भी किसी-किसी को होता है, सब को नहीं ।
७०-विषयभेद-अविधज्ञान सब रूपी द्रव्यों को जानता है पर उनके सब पर्यायों को नहीं जानता मनःपर्यायज्ञान उनके अनन्तवें भाग को विषय करता है । मुख्य प्रत्यक्ष का निरूपण समाप्त हुआ ।१९।
७१-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण
अर्थ-इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा स्वरूप वाला सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है ॥२०॥
७२-आगे कही जाने वाली स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ और मन जिसमें कारण हों वह इन्द्रियमनो निमित्त' कहलाता है। प्रमाण के सामान्य लक्षण का अध्याहार होने से यह विशेषण 'सम्यगर्थनिर्णय का समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जो सम्यगर्थनिर्णय इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । यह कारण का निरूपण हुआ। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा स्वरूप वाला है । सूत्र में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग यह प्रदर्शित करने के लिए किया गया है कि-यद्यपि अवग्रह आदि क्रम से उत्पन्न होते हैं, फिर भी उनमें सर्वथा भेद नहीं है-वे मूलतः अलग-अलग ज्ञान नहीं हैं, बल्कि पूर्व--पूर्व का ही उत्तर--उत्तर रूप में