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प्रमाणमीमांसा
३५ स द्वधा भवप्रत्ययो गुणप्रत्ययश्च । तत्राद्यो देवनारकाणां पक्षिणामिव वियद्गमनम् । गुणप्रत्ययो मनुष्याणां तिरश्चां च ।
६५--मनसो द्रव्यरूपस्य पर्यायाश्चिन्तनानुगुणाः परिणामभेदास्तद्विषयं ज्ञानं 'मनःपर्यायः'। तथावधिमनःपर्यायान्यथानुपपत्त्या तु यद्वाह्यचिन्तनीयार्थज्ञानं तत् आनुमानिकमेव न मनःपर्यायप्रत्यक्षम्, यदाहुः--
"जाणइ बज्झेणुमाणेणं ।" [विशेषा० गा० ८१४] ६६--ननु रूपिद्रव्यविषयत्वे क्षायोपशमिकत्वे च तुल्ये को विशेषोऽवधिमनःपर्याययोरित्याह
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयभेदात् तद्भदः ॥१९॥ ६७--सत्यपि कथञ्चित्साधर्म्य विशुद्धयादिभेदादवधिमनःपर्यायज्ञानयोर्भेदः । तत्रावधिज्ञानान्मनःपर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । यानि हि मनोद्रव्याणि अवधिज्ञानी जानीते तानि मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि जानीते।
६८-क्षेत्रकृतश्चानयोर्भेदः-अवधिज्ञानमंगुलस्यासंखयभागादिषु भवति आ सर्वलोकात्, मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एव भवति ।
यह ज्ञान दो प्रकार का है-मवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। भव-का निमित्त पाकर होने वाला भवप्रत्यय कहलाता है,जैसे पक्षियों का आकाशगमन भव के निमित्त से होता है । इस प्रकार का ज्ञान देवों और नारकों को ही होता है। दूसरा गणप्रत्यय अर्वाध मनुष्यों और तियंचों को ही होता है।
६५-द्रव्यमन के, चिन्तन के अनुरूप जो नाना प्रकार के पर्याय होते हैं, उन्हें जानने वाला ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के पदार्थ का चिन्तन किये बिना ऐसे पर्याय नहीं हो सकते ' ऐसा अविनाभाव का विचार करने से बाह्य चिन्तित पदार्थ का ज्ञान होता है । यह ज्ञान अनुमान है। अभिप्राय यह है कि जैसे-जैसे पदार्थ का चिन्तन किया जाता है, वैसे वैसे ही मन के पर्याप होते रहते हैं । मनःपर्याय ज्ञान उन्हीं पर्यायों को साक्षात् जानता है। फिर उन पर्यायों के आधार पर अनुमान से घट आदि बाह्य पदार्थों का बोध होता है । बाह्य पदार्थों के इस ज्ञान को मनःपर्यायज्ञान नहीं समझना चाहिए । भाष्य में भी कहा है- 'मनःपर्यायज्ञानी बाह्म पदार्थों को अनुमान से जानता है ॥१८॥
६६-शंका--अवधि और मनःपर्याय दोनों ज्ञान रूपी द्रव्यों को ही जानते हैं और दोनों क्षायोपशमिक हैं तो उनमें भेद क्या है ? इस शंका का समाधान___ अर्थ-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय के भेद से दोनों में भेद है ॥१९॥
६७-किसी अपेक्षा से समानता होने पर भी विशुद्धि आदि के भेद से अवधिज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान में भेद है। विशुद्धिभेद-अवधिज्ञान से मनःपर्याय ज्ञान अधिक विशुद्ध है। जिन मनो द्रव्यों को अवधिज्ञानी जानता है, उन्हें मनःपर्यायज्ञानी अधिक विशुद्ध रूप से जानता है।
६८-क्षेत्रभेद-अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग आदि क्षेत्र से लगा कर समस्त लोकपर्यन्त