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प्रमाणमीमांसा
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परिणामादेकात्मकत्वमिति प्रदर्शनार्थम् । समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः संव्यवहारस्तत्प्रयोजनं ‘सांव्यवहारिकम् ' प्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोनिमित्तत्वं च समस्तं व्यस्तं च बोद्धव्यम् । इन्द्रियप्राधान्यात् मनोबलाधानाच्चोत्पद्यमान इन्द्रियजः । मनस एव विशुद्धसव्यपेक्षा दुपजायमानो मनोनिमित्त इति ।
७३–ननु स्वसंवेदनरूपमन्यदपि प्रत्यक्षमस्ति तत् कस्मान्नोक्तम् ?, इति न वाच्यम्; इन्द्रियजज्ञानस्वसंवेदनस्येन्द्रियप्रत्यक्षे, अनिन्द्रियजसुखादिसंवेदनस्य मनःप्रत्यक्षे, योगिप्रत्यक्षस्वसंवेदनस्य योगिप्रत्यक्षेऽन्तर्भावात् । स्मृत्यादिस्वसंवेदनं तु मानसमेवेति नापरं स्वसंवेदनं नाम प्रत्यक्षमस्तीति भेदेन नोक्तम् ॥ २० ॥ ७४ -- इन्द्रियेत्युक्तमितीन्द्रियाणि लक्षयति-स्पर्शरसगन्धरूपशब्दग्रहणलक्षणानि स्पर्शनरसनत्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि द्रव्यभावभेदानि ॥ २१॥
७५--स्पर्शादिग्रहणं लक्षणं येषां तानि यथासङ्ख्यं स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि, तथाहि परिणमन हो जाता है अर्थात् अवग्रहज्ञान ईहा के रूप में, ईहा अवाय-रूप में और अवाय धारणा के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार उनमें एकात्मता भी है ।
समीचीन प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है । संव्यवहार जिसका प्रयोजन हो उसे 'सांव्यवहारिक' कहते हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में इन्द्रियों को और मन को कारण कहा है, इसका अभिप्राय यह नहीं, कि ये सम्मिलित ही कारण हों - अलग-अलग भी कारण होते हैं और सम्मिलित भी । जिस ज्ञान में इन्द्रियाँ प्रधान और मन गौण रूप से कारण हो, वह इन्द्रियसांव्यवहारिक' कहलाता है और विशुद्धियुक्त मन से ही जो उत्पन्न हो वह 'मनो निमित्तक' कहलाता है ।
७३ - शंका--'स्वसंवेदन' नामक एक प्रत्यक्ष और है । उसे यहाँ क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान - स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, किन्तु वह इनसे पृथक् नहीं है । इन्द्रियज ज्ञान का स्वसंवेदन इन्द्रियजप्रत्यक्ष में, मनोनिमित्तक ज्ञान का स्वसंवेदन मनोनिमित्तकप्रत्यक्ष में और योगिप्रत्यक्षस्वसंवेदन का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्गत है। स्मृति आदि ज्ञानों का स्वसंवेदन मानसप्रत्यक्ष में अन्तर्गत है । इसकारण स्वसंवेदनप्रत्यक्ष को पृथक नहीं कहा है ॥२०॥
७४ - इन्द्रियों का स्वरूप
अर्थ- स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र, यह पाँच इन्द्रियाँ हैं । क्रम से स्पर्श, गंध रूप और शब्द को ग्रहण करना लक्षण है । यह पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ॥२१
स्पर्श को ग्रहण करना स्पर्शेन्द्रिय का लक्षण है, रस को ग्रहण करना रसनेन्द्रिय का लक्षण है, गंध को ग्रहण करना घ्राणेन्द्रिय का लक्षण है, रूप को ग्रहण करना चक्षुरिन्द्रिय का लक्षण है और शब्द को ग्रहण करना श्रोत्रेन्द्रिय का लक्षण है ।