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प्रमाणमीमांसा
३१ प्राज्यसाम्राज्य श्रियं तृणवदवधूय समतृणमणिशत्रुमित्रवृत्तयो निजप्रभावप्रशमिते-- तिमरकादिजगदुपद्रवाः शुक्लध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्माण आविर्भूतनिखिलभावाभावस्वभावावभासिकेवलबलदलितसकलजीवलोकमोहप्रसराः सुरासुरविनिर्मितां समवसरणभुवमधिष्ठाय स्वस्वभाषापरिणामिनीभिर्वाग्भिः प्रवर्तितधर्मतीर्थाश्चतुस्त्रिशदतिशयमयीं तीर्थनाथत्वलक्ष्मीमुपभुज्य परं ब्रह्म सततानन्दं सकलकर्मनिर्मोक्षमुपेयिवांसस्तान्मानुषत्वादिसाधारणधर्मोपदेशेनापवदन् सुमेरुमपि लेष्टवादिना साधारणीकर्तुं पार्थिवत्वेनापवदेः !। किञ्च, अनवरतवनिताङ्गसम्भोगदुर्ललितवृत्तीनां विविधहेतिसमूहधारिणामक्षमालाद्यायत्तमनःसंयमानां रागद्वेषमोहकलुषितानां ब्रह्मादीनां सर्ववित्त्वसाम्राज्यम् !, यदवदाम स्तुतौ
“मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन । पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥"
[ योग--२५] इति । अथापि रागादिदोषकालुष्यविरहिताः सततज्ञानानन्दमयमूर्तयो ब्रह्मादयः; हि तादृशेषु तेषु न विप्रतिपद्यामहे, अवोचाम हिविशाल साम्राज्यश्री को ( ऐसे तीर्थंकर भगवान् गृहस्थावस्था के पश्चात् ) तण की तरह त्याग देते हैं,तृण-मणि तया शत्रु-मित्र पर समभाव धारण करते हैं,अपने प्रभाव से अतिवृष्टि आदि ईतियों तथा महामारी आदि उपद्रवों को शान्त कर देते हैं, शुक्लध्यान रूपी अग्नि से समस्त घातिक कर्मों को भस्म कर देते हैं. समस्त भाव एवं अभाव रूप पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण जगत के मोह-अज्ञान को नष्ट करते हैं, जो सुरों और असुरों द्वारा निर्मित समवसरण भूमि में विराजमान होकर श्रोताओं को अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाने वाले वचनों से धर्मतीर्थ में प्रवृत्त करते हैं, चौतीस अतिशयमयी तीर्थकरत्व-लक्ष्मी का उपयोग करके पर ब्रह्म एवं शाश्वत आनन्दमय मोक्ष (घातिकर्मों से मुक्ति) को प्राप्त कर चुके हैं. ऐसे तीर्थकर भगवान् में मनुष्यत्व आदि सामान्य धर्मों का उल्लेख करके पाये जाने वाले उनका अपवाद करना इसी प्रकार की धृष्टता है जैसे कोई कहे कि पार्थिव होने के कारण सुमेरु गिरिराज भी मिट्टी के ढेले के समान है !
इस पर तुर्रा यह कि जो निरन्तर वनिता के अंग का संभोग करने के कारण कामुक वति वाले है नाना प्रकारके शस्त्रों कोधारण करते है,अक्षमाला आदि पर जिनके मन का संयम निर्भर है और इन कारणों से जो राग-द्वेष और मोह से कलुषित हैं ऐसे ब्रह्मा विष्णु महेश के सर्वज्ञ होने की बात कही जाती है ! स्तुति में कहा है___'जो मद, मान, मदन, क्रोध, लोभ और राग के द्वारा पूरी तरह पराजित हैं ऐसे परकीय देवताओं को (ज्ञानरूपी) लक्ष्मी कहना वृथा ही है !'
हाँ, अगर आप ब्रह्मा आदि को राग-द्वेष के कालुष्य से रहित (वीतराग) और सतत ज्ञानानन्दमय कहें तो ऐसे ब्रह्मा आदि के विषय में हमारा कोई मतभेद नहीं है । हमने कहा भी है