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प्रमाणमीमांसा
____ "यदीयसम्यक्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमात्मभावम् ।
कुवासनापाशविनाशनाय नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ।"[ अयोग० २१ ] इति । प्रत्यक्षं तु यद्यप्यन्द्रिय (य) के नातीन्द्रियज्ञानविषयं तथापि समाधिबललब्धजन्मकं योगिप्रत्यक्षमेव बाह्यार्थस्येव स्वस्यापि वेदकमिति प्रत्यक्षतोऽपि तत्सिद्धिः। ५८--अथ- "ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।
ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥" इति वचनात्सर्वज्ञत्वमीश्वरादीनामस्तु, मानुषस्य तु कस्यचिद्विद्याचरणवतोपि तदसम्भावनीयम्, यत्कुमारिल:--
''अथापि वेददेहत्वाद् ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
कामं भवन्तु सर्वज्ञाः सार्वज्यं मानुषस्य किम् ?॥" [तत्त्वस० का ३२. ८ ] इति; आः! सर्वज्ञापलापपातकिन् ! दुर्वदवादिन् ! मानुषत्वनिन्दार्थवादापदेशेन देवाधिदेवानधिक्षिपसि?। ये हि जन्मान्तराज्जितोजितपुण्यप्राग्भाराः सुरभवभवमनुपम सुखमनुभूय दुःखपङ्कमग्नमखिलं जीवलोकमुद्दिधीर्षवो नरकेष्वपि क्षणं क्षिप्तसुखासिकामृतवृष्टयो मनुष्यलोकमवतेरुः जन्मसमयसमकालचलितासनसकलसुरेन्द्रवृन्दविहितजन्मोत्सवाः किङ्करायमाणसुरसमूहाहमहमिकारब्धसेवाविधयः स्वयमुपनतामति____ जिसकी सत्यता के बल से हम आप जैसों का परमात्मत्व समझ पाते हैं, उस कुवासनाओं के पाश का विनाश करने वाले आपके शासन-आगम-को नमस्कार हो।'
यद्यपि इन्द्रियप्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान को नहीं जान सकता, तथापि समाधि के बल से उत्पन्न होने वाला योगिप्रत्यक्ष स्वयं ही बाह्य पदार्थों की तरह अपने आपको भी जानता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से भी अतीन्द्रिय ज्ञान की सिद्धि होती है।
५८-शंका-जिस जगत्पति में अप्रतिहत ज्ञान है,वैराग्य है,ऐश्वर्य है और धर्म है-यह चार धर्म जिसमें स्वभाव से ही सिद्ध हैं (वही सर्वज्ञ ईश्वर है)' इस कथन के अनुसार ईश्वर आदि में सर्वज्ञता भले हो, किन्तु मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता चाहे वह कितना भी विद्यावान् और चारित्रवान् क्यों न हो ! कुमारिल भट्ट ने कहा है
ज्ञानमय देह वाले होने से ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर भले सर्वज्ञ हों किन्तु मनुष्य में सर्वज्ञता कैसी ?
समाधान--अरे सर्वज्ञ के अपलाप का पाप करने वाले ! अरे निन्दक ! मनुष्यता की निन्दा करने का बहाना करके देवाधिदेव पर आक्षेप करता है ! जिन्होंने पूर्वजन्मों में विराट पुण्य का समूह उपार्जन किया है, जो अनुपम देव मव के सुख का उपभोग करके दुःखों के पंक "में फंसे सम्पूर्ण जगत् का उद्धार करने के अभिलाषी होकर नरकों में भी क्षणभर के लिए सुखामृत की वर्षा करके मनुष्य लोक में अवतरित हुए हैं, जिनके जन्मते ही आसन चलायमान होने पर सकल सुरेन्द्रों के समूह आकर जन्ममहोत्सव मनाते हैं। किंकर के समान व्यवहार करते हुए देवगण प्राथमिकता के लिए स्पर्धा करते हुए जिनकी सेवा करते हैं, स्वयं प्राप्त अनन्त