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प्रमाणमीमांसा
३२- न प्रत्यक्षादन्यत्प्रमाणमिति लौकायतिकाः । तत्राहव्यवस्यान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षेतरप्रमाणसिद्धिः ॥ ११ ॥
३३- प्रमाणाप्रमाणविभागस्य, परबुद्धेः, अतीन्द्रियार्थनिषेधस्य च सिद्धिर्नानुमानादिप्रमाणं विना । चार्वाको हि काश्चिज्ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाव्यभिचारिणीरुपलभ्यान्याश्च विसंवादित्वेन व्यभिचारिणीः, पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं प्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् । न च सन्निहितार्थबलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते । न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद्यथादृष्टज्ञान व्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानीन्तनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च परोक्षान्तर्गतमनुमानरूपं प्रमाणान्तरमुपासीत ।
३४-- अपि च ( अ ) प्रतिपित्सितमर्थं प्रतिपादयन् 'नायं लौकिको न परीक्षकः ' इत्युन्मत्तवदुपेक्षणीयः स्यात् । न च प्रत्यक्षेण परचेतोवृत्तीनामधिगमोस्ति । चेष्टाविशेषदर्शनात्तदवगमे च परोक्षस्य प्रामाण्यमनिच्छतोऽप्यायातम् ।
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३२- प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण नहीं है, इस चार्वाक मत के विषय में कहते हैंअर्थ -- प्रमाण अप्रमाण की व्यवस्था, अन्य की बुद्धि तथा पर-लोक आदि का निषेध करने को सिद्ध होने से प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण की सिद्धि होती है ॥ ११ ॥
३३ - प्रमाण और अप्रमाण का विभाग, पर की बुद्धि और अतीन्द्रिय पदार्थ का निषेध अनुमान प्रमाण को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता ।
चाक किन्हीं ज्ञानों को संवादक समझ कर प्रमाण और किन्हीं को विसंवादक समझ कर अप्रमाण मानते हैं । पुनः कालान्तर में उन्हीं के समान संवादक ज्ञानों की प्रमाणता और अन्य प्रकार के ज्ञानों की अप्रमाणता की व्यवस्था करते हैं । किन्तु सन्निहित ( इन्द्रियसम्बद्ध ) पदार्थों के बल से उत्पन्न होने वाला और आगे-पीछे का विचार न करने वाला प्रत्यक्ष यह नहीं कर सकता । वह पूर्वापर काल में होने वाले ज्ञानविशेषों की प्रमाणता या अप्रमाणता का विचार करने में समर्थ नहीं है । अतएव पूर्वानुभूत ज्ञान की समानता के आधार पर वर्तमानकालीन ज्ञान की प्रमाणता अथवा अप्रमाणता का निर्णय करने वाला तथा उस निर्णय को दूसरों के समक्ष प्रतिपादन करने वाला एक पृथक् ही प्रमाण स्वीकार करना चाहिए। वह प्रमाणान्तर परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत अनुमान ही हो सकता है ।
इसके अतिरिक्त दूसरा जिस अर्थ को समझना नहीं चाहता, उसे समझाता हुआ यह arat न लौकिक ( लोक - व्यवहार में कुशल ) कहलाएगा और न प्रामाणिक ( प्रमाणपूर्वक व्यवहार करने वाला) ही । अतएव उन्मत्त पुरुष की तरह उपेक्षणीय होगा । प्रत्यक्ष से दूसरे की चित्तवृत्तियाँ जानी नहीं जा सकतीं । विशेष प्रकार की चेष्टा देख कर दूसरे की इच्छा को बिना चाहे भी जानने की बात कही जाय तो परोक्ष की प्रमाणता सिद्ध होती है । तात्पर्य यह