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प्रमाणमीमांसा ३५-परलोकादिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तुम्, सन्निहितमात्रविषयत्वात्तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिषिध्य नायं सुखमास्ते, प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति डिम्भहेवाकः।
३६-किञ्च,प्रत्यक्षस्याप्याव्यभिचारादेव प्रामाण्यं तच्चार्थप्रतिबद्धलिंगशब्दद्वारा समुन्मज्जतः परोक्षस्याप्यर्थाव्यभिचारादेव कि नेष्यते ? व्यभिचारिणोपि परोक्षस्य दर्शनादप्रामाण्यमिति चेत्, प्रत्यक्षस्यापि तिमिरादिदोषादप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राप्रामाण्यप्रसंगः। प्रत्यक्षाभासं तदिति चेत् ; इतरत्रापि तुल्यमेतदन्यत्र पक्षपातात्। धर्मकीतिरप्येतदाह
"प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः। प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥१॥ अर्थस्यासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता ।
प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम्" ॥२॥ इति । है कि दूसरे की मनोवृत्ति को समझकर उसी के अनुसार वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए भी प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य (अनुमान) प्रमाण स्वीकार करना पडेगा।
३५-और अकेले प्रत्यक्षप्रमाण से परले क,आत्मा,पुण्य-पाप आदि का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष तो इन्द्रियसम्बद्ध पदार्थों को ही जान सकता है। चार्वाक पर-लोक आदि का निषेध किये विना चैन नहीं पाता और निषेध करने के लिए प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण भी स्वीकार नहीं करता! यह बाल-हठ ही है।
३६-आखिर प्रत्यक्ष को क्योंप्रमाण माना है? इसी कारण तो कि वह अर्थाव्यभिचारी है, अर्थात् पदार्थ के होने पर होता है और नहीं होने पर नहीं होता है। किन्तु यह अर्थाव्यभिचार तो अविनाभावी लिंग से उत्पन्न होने वाले अनुमान में और अर्थ-प्रतिबद्ध शब्द द्वारा होने वाले शाब्द प्रमाण में भी होता ही है। फिर उन्हें प्रमाण क्यों नहीं मानते ? कदाचि जाय कि परोक्ष प्रमाण व्यभिचारी (पदार्थ के विना हे ने वाला) भी देखा जाता है, अतएव वह अप्रमाण है तो तिमिर आदि दोष के कारण प्रत्यक्ष भी व्यभिचारी देखा जाता है। उसे भी सर्वत्र अप्रमाण मानना पडेगा। प्रत्यक्ष जब व्यभिचारी होता है तो अप्रमाण मानना पडेगा। प्रत्यक्ष जब व्यभिचारी होता है तो वह प्रत्यक्ष ही नहीं-प्रत्यक्षामात्र है, ऐमा कहा जाय तो परोक्ष के संबन्ध में भी यही बात कही जा सकती है । अर्थात् जब अनुमान और शाब्द ज्ञान व्यभिचारी हों तो उन्हें भी अनुमान और शाब्द नहीं, वरन् अनुमानाभास और शाब्दाभास कहना चाहिये । पक्षपातसिवाय दोनों में और कोई अन्तर नहीं है। धर्मकीत्ति ने भी कहा है
अर्थ-प्रमाण और अप्रमाण ज्ञान की समानता के आधार पर कालान्तर में होने वाले ज्ञानों को प्रमाणता और अप्रमाणता की व्यवस्था करने से, दूसरे की बुद्धि (या अभिप्राय) को समझने से तथा परलोक आदि का निषेध करने से प्रत्यक्ष के अतिरिक्त दूसरे प्रमाण का सद्भाव सिद्ध होता है । पदार्थ के अभाव में न होने के कारण ही प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाता है, किन्तु