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________________ १५८ प्रमाणमीमांसा प्रतिपत्तौ वाक्यप्रयोगः अधिकत्वाग्निग्रहस्थानं न स्यात् ? । तथाविधस्याप्यस्य प्रतिपतिविशेषोपायत्वात्तन्नेति चेत् कथमनेकस्य हेतोरदाहरणस्य वा तदुपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणम् ? । निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकत्वादेव निग्रहस्थानं नाधिकत्वादिति १२। . ९३-शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तं नाम निग्रहस्थानं भवत्यन्यत्रानुवादात् । शब्दपुनरुक्तं नाम यत्र स एव शब्दः पुनरुच्चार्यते । यथा अनित्यः शब्दः अनित्यः शब्द इति । अर्थपुनरुक्तं तु यत्र सोऽर्थः प्रथममन्येन शब्देनोक्तः पुनः पर्यायान्तरेणोच्यते । यथा अनित्यः शब्दो विनाशी ध्वनिरिति । अनुवादे तु पौनरुक्त्यमदोषो यथा"हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम्" ( न्यायसू० १. १. ३९) इति । अत्रार्थपुनरुक्तमेवानुपपन्नं न शब्दपुनरुक्तम्, अर्थभेदेन शब्दसाम्येऽप्यस्यासम्भवात् यथा "हसति हसति स्वामिन्युच्चैरुदत्यतिरोदिति कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति । गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति, धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रनत्यति नृत्यति ॥"-(वादन्याग: पृ० १११) संभव होने पर भी असमस्त वाक्य का प्रयोग भी अधिक होने से निग्रहस्थान क्यों नहीं होता ? अगर कहो कि अधिक होने पर भी उनसे विशेष प्रतिपत्ति होती है, अतएव उन्हें निग्रहस्थान नहीं कहते तो अनेक हेतुओं या उदाहरणों से भी विशेष प्रतिपत्ति होती है. अतएव उनके प्रयोग को निग्रहस्थान क्यों कहते हो? हाँ, यदि निरर्थक हेतु या उदाहरण का प्रयोग किया जाय तो वह निरर्थक होने से ही निग्रहस्थान होगा, अधिक होने से नहीं। ९३-पुनरुक्त अनुवादको छोड़कर शब्द और अर्थको पुनरुक्ति करना पुनरुक्त निग्रहस्थान कहलाता है। एक ही शब्द का एक बार से अधिक प्रयोग करना शब्द-पुनरुक्ति है, जैसे 'शब्द अनित्य है, शब्द अनित्य है ।, किसी अर्थ को एक शब्द द्वारा कह कर अर्थ-पुनरुक्ति कहलाती है । यथा 'शब्द अनित्य है, ध्वनि विनाशवान् है । परन्तु अनुवाद करने में पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता, जैसे प्रलिज्ञा को दोहराने रूप निगमन का प्रयोग पुनरुक्ति नहीं है । किन्तु यहाँ अर्थ को पुनरुक्ति ही अनुचित है-वह नहीं होनी चाहिए । शब्द की समानता होने पर भी अर्थभेद होता है तो पुनरुक्ति दोष नहीं होता। यथा ___ हसति हसति स्वामिन्युच्चरुनत्यतिरोदिति, कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति । गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति. धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रनृत्यति नृत्यति ॥ (यहाँ क्रियापदों में शब्दसाम्य होने पर भी अर्थ भेद (१) होने से पुनरुक्ति नहीं है।) हसति, रुदति, प्रनिन्दति और प्रनृत्यति ये चारों वर्तमान कृदन्त शब्द के (मति) सप्तमी- एकवचन के रूप है और 'हसति' आदि दूसरे कप क्रियापद हैं, अत. यहाँ अभेद है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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