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________________ प्रमाणमीमांसा ९१-पञ्चावयवे वाक्ये प्रयोक्तव्ये तदन्यतमेनाप्यवयवेन हीनं न्यूनं नाम निप्र. हस्थानं भवति, साधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात्, प्रतिज्ञादीनां च पञ्चानामपि साधनत्वात् ; इत्यप्यसमीचीनम्, पञ्चावयवप्रयोगमन्तरेणापि साध्यसिद्धरभिधानात् प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमन्तरेणैव तत्सिद्धेरभावात् । अतस्तद्धीनमेव न्यूनं निग्रहस्थानमिति १२ । । ९२-एकेनैव हेतुनोदाहरणेन वा प्रतिपादितेऽर्थे हेत्वन्तरमुदाहरणान्तरं वा वदतोऽधिकं नाम निग्रहस्थानं भवति निष्प्रयोजनाभिधानात् । एतदप्ययुक्तम्, तथाविधाद्वाक्यात् पक्षसिद्धौ पराजयायोगात् । कथं चैवं प्रमाणसंप्लवोऽभ्युपगम्यते? । अभ्युपगमे वाऽधिकन्निग्रहाय जायते । प्रतिपत्तिदाढर्यसंवादसिद्धिप्रयोजनसद्भावान्न निग्रहः; इत्यन्यत्रापि समानम, हेतुनोदाहरणेन चै (वै) केन प्रसाधितेऽप्यर्थे द्वितीयस्य हेतोरुदाहरणस्य वा नानर्थक्यम, तत्प्रयोजनसद्भावात् । न चैवमनवस्था, कस्यचित् क्वचिनिराकाङ्क्षतोपपत्तेः प्रमाणान्तरवत् । कथं चास्य कृतकत्वादौ स्वार्थिककप्रत्ययस्य वचनम्, यत्कृतकं तदनित्यमिति व्याप्तौ यत्तद्वचनम्, वृत्तिपदप्रयोगादेव चार्ष ९१-न्यून-अनुमान में पाँच अवयवों का प्रयोग करना चाहिए। उनमें से किसी भी एक अवयव का प्रयोग न करना न्यून नामक निग्रहस्थान है। साधन के अभाव में साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती और केवल हेतु ही नहीं बलकि प्रतिज्ञा आदि पाँचों अवयव साधन हैं,अतएव पांचों का ही प्रयोग होना चाहिए । यह कथन भी समीचं न नहीं । पहले ही कहा जा चुका है कि पांच अवयवों के विना भी साध्य की सिद्धि होती है । केवल प्रतिज्ञा और हेतु का प्रयोग ही आवश्यक है, इनके, प्रयोग के विना साध्य सिद्ध नहीं होता। अतएव प्रतिज्ञा और हेतु में से किसी एक का प्रयोग न करना ही न्यून निग्रहस्थान हो सकता है। ९२-- अधिक-एक ही हेतु या एक ही उदाहरण के द्वारा अर्थ का प्रतिपादन हो जाने पर भी दूसरे हेतु या उदाहरण का प्रयोग करना अधिक नामक निग्रहस्थान है,क्योंकि दूसरे का कथननिष्प्रयोजन है, ऐसा कहना भी अयुक्त है । यदि वादी दूसरे हेतु अथवा उदाहरण का प्रयोग करके भी अपने पक्ष को सिद्ध कर देता हैं तो वह पराजित नहीं कहला सकता । इसके अतिरि क्त जब आप दूसरे हेतु के प्रयोग को निग्रह मानते हैं तो प्रमाणसंप्लव (१) कैसे मान सकते है प्रमाणसंप्लव मानने से अधिक नामक निग्रहस्थान हो जाएगा। शंका-प्रतिपत्ति की दृढता और संवाद के लिए प्रमाणसंप्लव मानने में निग्रह नहीं होता. क्योंकि उससे विशेष प्रयोजन सिद्ध होता है । समाधान-यह बात तो दूसरे हेतु और उदाहरण के प्रयोग के विषय में भी समान है एक हेतु या उदाहरण के द्वारा किसी अर्थ को सिद्ध करने पर भी दूसरे हेतु या उदाहरण का प्रयोग निरर्थक नहीं है,क्योंकि उसका भी विशेष प्रयोजन होता है । शंका-यों मानने से तो अनवस्थादोष हो जाएगा-कहीं विश्रान्ति ही नहीं होगी। समाधान-कहीं न कहीं आकांक्षा की समाप्ति हो ही जायगी जैसे प्रमागान्तरोंकी प्रवृत्ति की समाप्ति हो जाती है । इसके अतिरिक्त 'कृतकत्व, आदि हेतुओं में स्वार्थ में लगाया हुआ 'क, प्रत्यय, 'जो कृतक होता है, सो अनित्य होता है, ऐसी व्याप्ति में प्रयोग किया हुआ 'जो' और 'सो' पद तथा समासयुक्त पद से ही अर्थ की सिद्धि १-एक ही विषय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होना प्रमाणसंप्लव कहलाता है।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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