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________________ प्रमाणमीमांसा नुमानवाक्यमप्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानं भवति,स्वप्रतिपत्तिवत् परप्रतिपत्तेजनने परा आनुमाने क्रमस्याप्यङ्गत्वात्। एतदप्यपेशलम्,प्रेक्षावतां प्रतिपत्त्हणामवयवक्रमनियमं विवायर्थप्रतिपत्त्युपलम्भात् । ननु यथापशब्दात् श्रुताच्छब्दस्मरणं ततोऽर्थप्रत्यय इति शब्दादेवार्थप्रत्ययः परम्परया तथा प्रतिज्ञाद्यवयवव्युत्क्रमात् तत्क्रमस्मरणं ततो वाक्यार्थप्रत्ययो न पुनस्तद्वयुत्क्रमात्; इत्यप्यसारम्, एवंविधप्रतीत्यभावात् । यस्माद्धि शब्दादुच्चरितात् यत्रार्थे प्रतीतिः स एव तस्य वाचको नान्यः, अन्यथा शब्दात्तत्क्रमाच्चापशव्दे तद्व्यतिक्रमे च स्मरणं ततोऽर्थप्रतीतिरित्यपि वक्तुं शक्येत । एवं शब्दान्वाख्यानवैयर्थ्यमिति चेत् ; नवम्, वादिनोऽनिष्टमात्रापादनात् अपशब्देऽपि चान्वाख्यानस्योपलम्भात् । संस्कृताच्छब्दात्सत्यात् धर्मोऽन्यस्मादधर्म इति नियमे चान्यधर्माधर्मोपायानुष्ठानवैयथ्यं धर्माधर्मयोश्चाप्रतिनियमप्रसङ्गः,अधार्मिके च धामिके च तच्छब्दोपलम्भात् । भवतु वा तत्क्रमादर्थप्रतीतिस्तथाप्यर्थप्रत्ययः क्रमेण स्थितो येन वाक्येन व्युत्क्रम्यते तन्निरर्थकं न त्वप्राप्तकालमिति १० । मन का प्रयोग अनुमान में किया जाता है। इस क्रम का उल्लंधन करके अवययों में उलटफेर करके यदि अनुमान का प्रयोग किया जाय तो अप्राप्तकाल निग्रहस्थान होता है । जैसे अपने को क्रम से प्रतिपत्ति होती है उसी प्रकार दूसरे को ज्ञान कराने में परार्थानुमान में क्रम भी कारण होता है । यह कहना भी समीचीन नहीं,क्योंकि जो प्रतिपत्ता बुद्धिशाली है वह अवयवों के क्रम के विना भी अर्थ को समझलेता है। शंका-जैसे अशुद्ध शब्दको सुनने पर पहले शुद्ध शब्द का स्मरण होता है,तत्पश्चात् उससे अर्थका ज्ञानहता है इस प्रकार शुद्ध से हो परम्परा से अर्थ क होता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञा आदि अवयवों को व्युत्क्रम से सुनने पर पहले उनके क्रम क होता है और फिर वाक्य के अर्थ का ज्ञान होता है-व्युत्क्रम से ज्ञान नहीं होता। समाधान-यह कहना निस्सार है, क्योंकि इस प्रकार का अनुभव नहीं होता है। जिस शब्द के उच्चारण से। पदार्थ की प्रतीति होती है,वही शब्द उस पदार्थ का वाचक माना जाता है,अन्य नहीं । ऐसा न माना जाय तो इससे विपरीत कहा जा सकता है कि- शुद्ध शब्द को सुनने पर अशुद्ध शब्द का स्मरण होता है और अवयवों के अनुक्रम को सुनने पर उनके व्यतिक्रम का स्मरण होता है और तब अर्थ की प्रतीति होती है । शंका-यदि व्यतिक्रम से प्रयुक्त अवयवों से अर्थ को प्रतीति मान ली जाय तो उनका अनुक्रम से कहना वृथा हो जाएगा। समाधान-नहीं। यहाँ अनुक्रमवाद। को अनिष्टापत्ति मात्र का प्रसंग दिखलाया है। अनुक्रम तो अशुद्ध शब्दों में भी देखा जाता है। शंका-संस्कृत और सत्य शब्द का उच्चारण करने से धर्म होता है और इससे विपरीत शब्द के उच्चारण से अधर्म होता है । समाधान- ऐसा नियम मान लिया जाय तो धर्म अधर्म के अन्य नियम व्यर्थ हो जाएंगे इसके अतिरिक्त धर्म और अधर्म में कोई प्रतिनियतता नहीं रहेगी,क्योंकि धार्मिक और अधार्मिक दोनों प्रकार के पुरुषों में दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना देखा जाता है। अथवा प्रतिज्ञा आदि अवयवों के क्रम के कारण ही अर्थ को प्रतीति होती है,ऐसा मान भी लिया जाय तो क्रम के कारण होने वाला अर्थ का प्रत्यय जिस वाक्य से क्रमविहीन किया जाता है वह निरर्थक निग्रहस्थान हो सकता है, उसे अप्राप्तकाल नहीं कह सकते।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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