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प्रमाणमीमांसा
१५१ ८२-"प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधःप्रतिज्ञाविरोधः"( न्यायसू० ५, २, ४ )नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धेरिति । सोऽयं प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः-यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं कथं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः?, अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः कथं गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति?, तदयं प्रतिज्ञाविरुद्धाभिधानात् पराजीयते । तदेतदसङ्गतम् । यतो हेतुना प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे निरस्ते प्रकारान्तरतः प्रतिज्ञाहानिरवेयमुक्ता स्यात्, हेतुदोषो वा विरुद्धतालक्षणः, न प्रतिज्ञादोष इति ३ ,
८३-पक्षसाधने परेण दूषिते तदुद्धरणाशक्त्या प्रतिज्ञामेव निहनुवानस्य प्रतिज्ञासंन्यासो नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येनानेकान्तिकतायामुद्भावितायां यदि ब्रूयात्-क एवमाह-अनित्यः शब्द इति -स प्रतिज्ञासंन्यासात् पराजितो भवतीति । एतदपि प्रतिज्ञाहानितो न भिद्यते,हेतोरनैकान्तिकत्वोपलम्भेनात्रापि प्रतिज्ञायाः परित्यागाविशेषात् ४।।
८४-अविशेषाभिहिते हेतौ प्रतिषिद्धे तद्विशेषणमभिदधतो हेत्वन्तरं नाम निनहस्थानं भवति । तस्मिन्नेव प्रयोगे तथैव सामान्यस्य व्यभिचारेण दूषिते-'जातिमत्त्वे
८२-प्रतिज्ञाविरोध-प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध होना । जैसे द्रव्य गुणों से भिन्न है, क्योंकि रूप आदि से भिन्न उपलब्ध नहीं होता । यहाँ प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध है-यदि द्रव्य गुणों से भिन्न है तो रूपादि से भिन्न उपलब्ध होना चाहिए। यदि भिन्न नहीं उपलब्ध होता। भिन्न कैसे माना जा सकता है ? इस प्रकार प्रतिज्ञा से विरुद्ध हेतु का प्रयोग करने से वादी पराजित हो जाता है । किन्तु यह निग्रहस्थान भी असंगत है । यदि हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा का प्रतिज्ञात्व निरस्त कर दिया गया तो प्रकारान्तर से यह 'प्रतिज्ञाहानि' ही हो गई ; अथवा यह हेत में विरुद्धता दोष हआ-प्रतिज्ञादोष नहीं।
. ८३-प्रतिज्ञासंन्यास-प्रतिवादी के द्वारा साधन में दोष की उद्भावना करने पर वादी जब उस दोष का निवारण करने में समर्थ न हो तव अपनी प्रतिज्ञा से ही मुकर जाय तो प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान होता है । यथा-शब्द अनित्य है, क्योंकि इन्द्रिय का विषय है, इस प्रकार कहने पर प्रतिवादी सामान्य से व्यभिचार दोष का उद्भावन करे। ऐसी स्थिति में वादी यदि कहने लगे-'कौन कहता है कि शब्द अनित्य है।' इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा का ही अपलाप कर देना प्रतिज्ञासंन्यास कहलाता है । इससे वादी का पराजय होता है । किन्तु यह भी प्रतिज्ञाहानि से पृथक् नहीं है । अपने हेतु को अनैकान्तिक पाकर कह प्रतिज्ञा का (अपलाप कर के) त्याग करता है।
८४ हेत्वन्तर-वादी ने विना विशेषण के हेतु का प्रयोग किया। प्रतिवादी ने उसका प्रतिषेध किया। तब वादी यदि हेतु के साथ कोई विशेषण जोड़ दे तो हेत्वन्तर नामक निग्रहस्थान होता है, यथा-शब्द अनित्य है, इत्यादि प्रयोग में पूर्ववत् सामान्य से अनेकान्तिकता दोष की उद्भावना