SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० प्रमाणमीमांसा राकुलीभावात् प्रकृत्या सभाभीरुत्वादन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्ता (त्) किञ्चित् साध्वत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजानानस्याप्युपलम्भात् पुरुषभ्रान्तेरनेककारणकत्वोपपत्तेरिति १। ८१-प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्यन व्यभिचारे नोदिते यदि ब्रूयात्-युक्तं सामान्यमैन्द्रियकं नित्यं तद्धि सर्वगतमसर्वगतस्तु शब्द इति । सोऽयम् 'अनित्यः शब्दः' इति पूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तरम् 'असर्वगतः शब्द' इति कुर्वन् प्रतिज्ञान्तरेण निगृहीतो भवति । एतदपि प्रतिज्ञाहानिवन्न युक्तम्, तस्याप्यनेकनिमित्तत्वोपपत्तेः । प्रतिज्ञाहानितश्चास्य कथं भेदः, पक्षत्यागस्योभयत्राविशेषात् ? । यथैव हि प्रतिदृष्टान्तधर्मस्य स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुज्ञानात् पक्षत्यागस्तथा प्रतिज्ञान्तरादपि । यथा च स्वपक्षसिद्धयर्य प्रतिज्ञान्तरं विधीयते तथा शब्दानित्यत्वसिद्धयर्थं भ्रान्तिवशात् तद्वच्छब्दोऽपि नित्योऽस्तु' इत्यनुज्ञानम्, यथा चाभ्रान्तस्येदं विरुद्धचते तथा प्रतिज्ञान्तरमपि । निमित्तभेदाच्च तद्भेदे अनिष्टनिग्रहस्थानान्तराणामप्यनुषङ्गः स्यात् । तेषां च तत्रान्तर्भावे प्रतिज्ञान्तरस्यापि प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावः स्यादिति २।। संभव हो । वादी यदि आक्षेप आदि किसी कारण से व्याकुल हो जाय, प्रकृति से ही सभाभीरु हो या अन्यमनस्क हो, इत्यादि किसी भी निमित्त से किसी धर्म को साध्य बना कर फिर उससे विपरीत प्रतिज्ञा का प्रयोग करने लग सकता है । पुरुषों की भ्रान्तिका एक ही कारण नहीं होता -अनेक कारणों से भ्रान्ति होती देखी जाती है। ४१-प्रतिज्ञान्तर-प्रतिज्ञा अर्थ का प्रतिवादी द्वारा निषेध करने पर यदि वादी उसी पक्ष में दूसरे धर्म को सिद्ध करने लमे तो प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रहस्थान होता है । यथा-'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह इन्द्रिय का विषय है' ऐसा कहने पर प्रतिवादो ने पूर्ववत् सामान्य से व्यभिचार का प्रसंग दिया। तव वादी यदि ऐसा कहने लगे-'ठोक है सामान्य इन्द्रिय का विषय होता हुआ भी नित्य है, किन्तु सामान्य सर्वगत (व्यापक ) है और शब्द असर्वगत है । इसप्रकार कहने वाला वादी 'शब्द अनित्य है, अपनी इस दूसरी प्रतिज्ञा को अंगीकार करता है । वह प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रह से निगृहीत होता है। यह प्रतिज्ञानिग्रहस्थान भी प्रतिज्ञाहानि के समान उचित नहीं है । प्रतिज्ञान्तर भी अनेक निमित्तों से हो सकता है । इसके अतिरिक्त जब पक्ष का त्याग दोनों में समान है तो प्रतिज्ञाहानि से इसमें विशेषता क्या रही है ? जैसे प्रतिदृष्टान्त के धर्म को स्वदृष्टान्त में स्वीकार करने से पक्ष का त्याग हो जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तर से भी पक्ष का त्याग हो जाता है । कदाचित् कहा जाय कि पक्षत्याग दोनों जगह समान होने पर भी उसके निमित्त में भेद है, इस कारण निग्रहस्थानों में भी भेद माना गया है तो फिर दूसरे ऐसे निग्रहस्थान भी मानने पडेंगे जिन्हें आपने माना नहीं है । अगर उनका इन्हीं में अन्तर्भाव होना कहते हो तो प्रतिज्ञान्तर का भी प्रतिज्ञाहानि में ही अन्तर्भाव हो जाना चाहिए।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy