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________________ प्रमाणमीमांसा १४-'विषयः'यत्र तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्या वा हेतुः स्वसाध्यसाधनाय प्रार्थ्यते, तस्य 'उपदर्शनम्' परप्रतीतावारोपणं तदर्थं पुनः 'प्रतिज्ञा' प्रयोक्तव्येति शेषः । १५-अयमर्थः-परप्रत्यायनाय वचनमुच्चारयता प्रेक्षावता तदेव परे बोधयितव्या यदभुत्सन्ते । तथासत्यनेन बुभुत्सिताभिधायिना परे बोधिता भवन्ति । न खल्वश्वान् पृष्टो गवयान् ब्रुवाणः प्रष्टुरवधेयवचनो भवति । अनवधेयवचनश्च कथं प्रतिपादको नाम?। यथा च शैक्षो भिक्षुणाचचक्षे-भोः शैक्ष, पिण्डपातमाहरेति । स एवमाचरामीत्यनभिधाय यदा तदर्थं प्रयतते तदाऽस्मै क्रुध्यति भिक्षुः-आः शिष्याभास, भिक्षुखेट, अस्मानवधीरयसीति विब्रुवाणः । एवमनित्यं शब्दं बुभुत्समानाय अनित्यः शब्द इति विषयमनुपदर्य यदेव किञ्चिदुच्यते-कृतकत्वादिति वा, यत् कृतकं तदनित्यमिति वा, कृतफत्वस्य तथैवोपपत्तेरिति वा,कृतकत्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति वा,तत् सर्वमस्यानपेक्षितमापाततोऽसम्बद्धाभिधानबुद्ध्या; तथा चानवहितो न बोर्बुमर्हतीति । १६-यत् कृतकं तत् सर्वन नित्यं यथा घटः, कृतकश्च शब्द इति वचनमर्थसामर्थ्येनैवापेक्षितशब्दानित्यत्वनिश्चायकमित्यवधानमत्रेति चेत् ; न, परस्पराश्रयात् । १४- जिस स्थल में अपने साध्य को सिद्ध करने के लिए तथोपपत्ति या अन्यथानुपपत्ति के द्वारा हेतु का प्रयोग किया जाता है वह स्थल यहाँ विषय कहा गया है, उस स्थल को दूसरे को समझाने के लिए प्रतिज्ञा का प्रयोग करना चाहिए। १५-आशय यह है-दूसरे को समझाने के लिए वचन प्रयोग करने वाले वक्ता का कर्तव्य है कि वह वही समझाए जो दूसरे समझना चाहते हों। ऐसा करके वह दूसरों को समझा सकता है । अश्व के विषय में पूछा जाय और गवय के विषय में जो उत्तर दे, उसके वचनों से कुछ निश्चय नहीं होता। ऐसा वक्ता किस काम का ? उसके वचन ग्राह्य नहीं हो सकते। एक भिक्षु ने अपने शिष्य से कहा-'आहार-पानी ले आओ।' वह शिष्य 'लाता हैं' ऐसा कहे बिना ही जब आहार-पानी के लिए प्रयत्न करता है, तब भिक्षु उसपर क्रोध करता और निंदा करता है-- अरे शिष्याभास ! नीच भिक्षु ! तू हमारी अवहेलना करता है ? __ इसी प्रकार जो व्यक्ति शब्द की अनित्यता को समझना चाहता है, उसके समक्ष 'शब्द अनित्य है' ऐसा कहे बिना ही यदि वक्ता अन्यान्य बातें कहता है, जैसे- 'कृतक होने से,' 'जो कृतक होता है वह अनित्य होता है', 'ऐसा होने पर ही कृतकता हो सकती है', 'अन्यथा कृतकता नहीं हो सकती' इत्यादि, तो यह सब वाक्य उसके लिए अनपेक्षित हैं, क्योंकि आपाततः वह असम्बद्ध अप्रासंगिक-से प्रतीत होते हैं । असावधान श्रोता को ऐसे वचनों से कोई बोध प्राप्त नहीं होता। १६--शंका--'जो कृतक होता है वह सब अनित्य होता है, जैसे घट, शब्द भी कृतक है' इस प्रकार का वचनप्रयोग अर्थ के सामर्थ्य से शब्द की अनित्यता का निश्चायक हो जाता है' यही अवधान यहाँ पर है, ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष आयेगा।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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