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________________ ११४ प्रमाणमीमांसा साधनस्य साध्याविनाभावः प्रकाश्यते । न च यत्राभिधेयभेदस्तत्र तात्पर्यभेदोऽपि । नहि पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते, पीनो देवदत्तो रात्रौ भुङ्क्ते इत्यनयोर्वाक्ययो. रभिधेयभेदोऽस्तीति तात्पर्येणापि भेत्तव्यमिति भावः ॥५॥ ११-तात्पर्याभेदस्यैव फलमाह अत एव नोभयोः प्रयोगः ॥६॥ १२-यत एव नानयोस्तात्पर्ये भेदः 'अत एव नोभयोः' तथोपपत्त्यन्यथानुपप त्योर्युगपत् 'प्रयोगः' युक्तः । व्याप्त्युपदर्शनाय हि तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां हेतोः प्रयोगः क्रियते । व्याप्त्युपदर्शनं चैकयैव सिद्धमिति विफलो द्वयोः प्रयोगः । यदाह "हेतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा। द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥(न्याया०१७) १३-ननु यद्येकेनैव प्रयोगेण हेतोाप्त्युिर दर्शनं कृतमिति कृतं विफलेन द्वितीयप्रयोगेण; तहि प्रतिज्ञाया अपि मा भूत् प्रयोगो विफलत्वात् । नहि प्रतिज्ञामात्रात् कश्चिदर्थं प्रतिपद्यते, तथा सति हि विप्रतिपत्तिरेव न स्यादित्याह विषयोपदर्शनार्थं तु प्रतिज्ञा ॥७॥ (अन्वय का वाच्य विधि और व्यतिरेक का वाच्य निषेध है ) मगर ऐसी कोई बात नहीं कि जहाँ वाच्य का भेद हो वहाँ तात्पर्य में भी भेद होना ही चाहिए । यह मेटा ताजा देवदत्त दिन में भोजन नहीं करता, और 'यह मोटा ताजा देवदत्त त्रि में भोजन करत है इन दोनों में वाच्य भेद तो है मगर तात्पर्य में भेद नहीं ।।५।। ११-तात्पर्य भेद-- अभेद का फलसूत्रार्थ-अतएव देनों का प्रयोग नहीं किया जाता ॥६।। १२--तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति के तात्पर्य में भेद नहीं है,इस कारण दोनों का एक साथ प्रयोग करना उचित नहीं है । तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति के द्वारा हेतु का जो प्रयोग किया जाता है उसका प्रयोजन व्याप्ति को दिखलाना ही है और यह प्रयोजन दोनों में से किसी भी एक के प्रयोग से सिद्ध हो जाता है। अतएव दोनों का प्रयोग करना निष्फल है । कहा भी है 'हेतु का प्रयोग या तो तयोपपत्ति से होता है या अन्यथानुपपत्ति से होता है । दोनों में से किसी भी एक से साध्य को सिद्धि हो जाती है। १३-शंका--दो में से किसी एक प्रयोग से ही यदि हेतु की व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है इस कारण दूसरा प्रयोग निष्फल है और आवश्यकता नहीं है तो निष्फल होने के कारण ही प्रतिज्ञा का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। प्रतिज्ञा मात्र से ही कोई किसी अर्थ को स्वीकार नहीं कर लेता । यदि स्वीकार कर लेता होता तो कोई विवाद हो न रहता । इस शंका का समाधान अगले सूत्र में करते हैं-- संत्रार्थ-प्रतिज्ञा विषय के उपदर्शन के लिए होती है ॥६॥
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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